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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
वह पुरुष यथार्थ का द्रष्टा है या अयथार्थ का । जो जैसा है वैसा देखना यथार्थ है ।
अयथार्थ : जो जैसा है, वैसा नहीं देखना - भ्रान्त दृष्टिकोण, मोहनीय कर्म के उदय से दृष्टिकोण भ्रान्त हो गया । जैसे आँखें तो हैं परन्तु आवरण आ जाने पर वह देख तो सकता है लेकिन जो है उससे कुछ अलग देखता है। जीव का गुण है दर्शन। अतः आस्था तो सभी में है। किसी की सत्य के प्रति, किसी की असत्य के प्रति, बिना आस्था के जीव हो नहीं सकता। बिना गुण के गुणी कैसे रहेगा ?
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इसे हम इस प्रकार से भी जान सकते हैं कि उसकी आस्था जीवन के किस दृष्टिकोण में है । केवल खाना-पीना और जीना यही उसका साध्य है या वह जीवन एक संघर्ष है, ऐसा मानता है। व्यक्ति मान्यता में जीता है । वह जैसी मान्यता बना लेता है, ठीक वैसे ही वह जीता है । यदि मान्यता भ्रान्त है तो उसका सारा जीवन भ्रान्त हो जाएगा।
व्यवहार सम्यक्त्व सुदेव, सद्गुरु और सद्धर्म की शरण, अर्थात् यथार्थ सत्य की शरण । निश्चय में, यथार्थ का बोध होना, पूरे आवरण हट जाना, मिथ्या - दर्शन का आवरण हट जाना। जैसे कमरे की खिड़की बन्द हो तब पूर्ण रूप से अँधेरा, फिर एक छोटा-सा छिद्र हो तो प्रकाश की किरण भीतर प्रवेश करती है। माना कि एक ही किरण है, लेकिन वह एक छिद्र भी और उस एक छिद्र से आने वाला प्रकाश भीप्रकाश के अस्तित्व का मूल स्वरूप का बोध करा देता है । वह है निश्चय सम्यक्त्व । व्यवहार क्या है ? जो यथार्थ है उस यथार्थ के सम्बन्ध में विश्वास अथवा मान्यता । जैसे देह अलग है, चेतन अलग है, लेकिन अभी वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। फिर भी, क्योंकि हमने अरिहन्त की शरण ली है अतः वे तो यह साक्षात् देख रहे हैं । लेकिन वे जो देख रहे हैं, वह हमें नहीं दिखाई पड़ता । अतः अरिहन्त के शरण ऐसे हैं, जैसे अन्धा व्यक्ति आँख वाले की उँगली पकड़ लेता है। उसके पास तो आँख नहीं है, लेकिन आँख वाले की उँगली पकड़ कर वह सुचारु रूपेण रास्ता पार कर लेता है। इसी का नाम शरण है।
अरिहन्त प्रभु ने जो यथार्थ देखा है और बताया है, देह और चेतन भिन्न है, उसे मैं भी मानता हूँ और उस मान्यता के अनुसार अपने जीवन को ढालता हूँ, क्योंकि जैसा मेरा जीवन के प्रति दृष्टिकोण होगा, वैसा ही मेरे जीवन का आचरण होगा।