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________________ 446 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध 'छणं-छणं' शब्द का अर्थ है-हिंसा । अतः मुनि हिंसा का त्याग कर के संयम साधना में प्रवृत्त होता है। उसके लिए वह लोक संज्ञा आदि का भी त्याग कर देता है। लौकिक सुख एवं परिग्रह का त्याग कर देने पर ही वह आत्म सुख का अनुभव कर सकता है। इससे स्पष्ट हुआ कि कर्मों को क्षय करने के लिए हिंसा आदि दोषों एवं अनाचरणीय क्रियाओं का त्याग करके जो शुद्ध संयम में प्रवृत्ति करता है, वह साधक अपना आत्म विकास करते हुए दूसरे को भी यथार्थ मार्ग बताता है। वस्तुतः उपदेश की किसको आवश्यकता होती है और संसार में कौन परिभ्रमण करता है, इस बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-उद्देसो पासगस्स नत्थि, बाले पुण निहे कामसमणुन्ने असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवळं अणुपरियट्टइ, त्तिबेमि॥105॥ छाया-उद्देशः (उपदेशः) पश्यकस्य नास्ति, बालः पुनर्निह कामसमनुज्ञः अशमित दुःख दुःखी दुःखानामेवावर्त्तमनुपरिवर्तते, इति.ब्रवीमि। पदार्थ-उद्देसो-उपदेश। पासगस्स-यथाद्रष्टा को। नत्थि-नहीं हैं, किन्तु जो। बाले-अज्ञानी है। पुण-फिर। निहे-स्नेह करने वाला। कामसमणुन्नेकाम-भोगों के अभिलाषी को। असमिय दुक्खे-असीम दुःख होता है। दुक्खी-वह बार-बार दुःख का संवेदन करता है। दुक्खाणमेव-दुःखों के ही। आवटें-आवर्त्त में। अणुपरियट्टइ-परिभ्रमण करता रहता है। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ-यथार्थ द्रष्टा के लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं है। जो बाल अज्ञानी पुरुष है, वही बार-बार काम-भोगों में स्नेह करता है और बार-बार दुःखों के आवर्त में अनुवर्तन करता रहता है। इस प्रकार मैं कहता हूँ। 1. 'क्षणु हिंसायां' क्षणनं क्षणो-हिंसनं कारणे कार्योपचारात् येन येन प्रकारेण हिंसोत्पद्यते तत्तत् ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् । -आचारांग वृत्तिः 2. लोकस्य-गृहस्थ लोकस्य संज्ञानं संज्ञा-विषयाभिर्ध्वगजनितसुखेच्छा परिग्रह संज्ञा वा तां च ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यान परिज्ञया च परिहरेत्। -आचारांग वृत्ति
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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