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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 6
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हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट कर दिया है कि जो यथार्थ द्रष्टा है, तत्त्वज्ञ है, उसे उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती; क्योंकि वह अपने कर्त्तव्य को जानता है और अपने संयम पथ पर सम्यक्तया गति कर रहा है। इसलिए वह संसार-सागर से पार होने में समर्थ है। संसार सागर को पार करने के लिए ज्ञान और क्रिया आवश्यक हैं। इनकी समन्वित साधना से ही साधक अपने साध्य को सिद्ध कर सकता है। इसलिए निर्वाण पद को पाने के लिए ज्ञान और चारित्र दोनों को स्वीकार करना जरूरी है। ' प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य यही है कि कषाय, राग-द्वेष एवं विषय-वासना में आसक्त व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता है। दूसरे शब्दों में हम यों कह सकते हैं कि कषाय, राग-द्वेष एवं विषय-वासना ही संसार है। क्योंकि संसार का मूलाधार ये ही हैं। इनमें आसक्त रहने वाला व्यक्ति ही संसार में घूमता है। अतः इनका त्याग करना, विषय-वासना में जाते हुए योगों को उस ओर से रोक कर संयम में लगाना, यही संसार से मुक्त होने का उपाय है और यही लोक पर विजय प्राप्त करना है। जो व्यक्ति काम-क्रोध; राग-द्वेष आदि आध्यात्मिक शत्रुओं को जीत लेता है, उसके लिए
और कुछ जीतना शेष नहीं रह जाता। फिर लोक में उसका कोई शत्रु नहीं रह जाता। सारा लोक-संसार उसका अनुचर-सेवक बन जाता है।
इसका तात्पर्य यह है कि विषय-वासना की आसक्ति का त्याग-करने वाला अनन्त सुख को प्राप्त करता है। उसमें आसक्त रहने वाला व्यक्ति असीम दुःखों को प्राप्त करता है। उसके दुःखों का कभी अन्त नहीं आता। अतः मुमुक्षु पुरुष को विषयों में आसक्त न होकर, साधना में संलग्न रहना चाहिए।
'त्तिबेमि' का अर्थ भी पूर्ववत् समझना चाहिए।
॥ षष्ठ उद्देशक समाप्त ॥ ॥ द्वितीय अध्ययन लोकविजय समाप्त ॥