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________________ 445 द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 6 .. इसलिए मुमुक्षु पुरुष को किस प्रकार प्रवृत्ति करनी चाहिए, इसका उपदेश देते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-से जं च आरभे जं च नारभे, अणारद्धं च न आरभे, छणं-छणं परिण्णाय लोगसन्नं च सव्वसो॥104॥ छाया-स यच्चारभते, यच्च नारभते अनारब्धं च नारभते, क्षण-क्षणं परिज्ञाय लोकसंज्ञां च सर्वशः। . पदार्थ-से-वह कुशल साधक। जं-जिस-कर्मों को क्षय करने के लिए संयमानुष्ठान को। आरभे-आरम्भ करता है। च-समुच्चयार्थक है। जं च-और जिन मिथ्यात्वादि संसार परिभ्रमण के कारणों को। नारभे-आरम्भ नहीं करता है। च-और । अणारद्धं-जो आचरणीय नहीं है। नारभे-उन्हें स्वीकार न करे, किन्तु। छणं-छणं-जिन-जिन कारणों से हिंसा होती है, उन्हें। परिण्णाय-जानकर। च-तथा। सव्वसो लोगसन्नं-सर्व प्रकार से आहार आदि लोक संज्ञाओं का भी परित्याग कर दे, अर्थात् त्रिकरण त्रियोग से संज्ञा का परित्याग कर दे। . मूलार्थ-वह कुशल मुनि कर्मों का क्षय करने के लिए संयम-साधना को स्वीकार करता है। अतः वह मिथ्यात्व, अविरति आदि संसार परिभ्रमण के कारणों एवं सर्वज्ञों द्वारा अनाचरणीय आचार को स्वीकार नहीं करता है और वह हिंसा के स्थान को तथा लोकसंज्ञा आदि के स्वरूप को भली-भांति जानकर उनका सर्वथा । परित्याग कर देता है। हिन्दी-विवेचन - संसार का कारण कर्म है और उनसे सदा मुक्त होना यह साधक का उद्देश्य है, लक्ष्य है। इसलिए वह मुनि कुशल कहा गया है, जो संयम-साधना के द्वारा कर्मों को क्षय करने का प्रयत्न करता है। वह प्रबुद्ध साधक मिथ्यात्व, अविरति आदि दोषों को ग्रहण नहीं करता और न वह ऐसे आचार को स्वीकार करता है, जो केवली भगवान द्वारा अनाचरित है। 1. अनारब्धं-अनाचीर्णं केवलिभिर्विशिष्टमुनिभिर्वा तन्मुमुक्षुरिभते-न कुर्यादित्युपदेशो, यच्च मोक्षांगमाचीर्णं त कुर्यादित्युक्तं भवति। -आचारांग वृत्ति
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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