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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 6
देनेवाला हो! अर्थात् उपदेश को सुनकर श्रोताओं में से कोई मुख्य श्रोता उठकर उपदेशक साधु के वचन का अनादर करता हुआ उसे मारने या ताड़ना तर्जना करने पर भी उतारू हो जाए तो यह असम्भव नहीं, इसलिए परिषद् के अभिप्राय को जाने बिना धर्मोपदेश करना भी श्रेयस्कर नहीं है । अतः उपदेशक के लिए उपदेश देने से पहले यह जानना बहुत आवश्यक है कि जिसको वह उपदेश देने लगा है वह कौन, किस विचार का और किस देवता को मानता है? इन सब बातों का ज्ञान रखने वाला वीर पुरुष प्रशंसा के योग्य है तथा वह ऊंची-नीची और मध्य दिशा में उत्पन्न होने आठ प्रकार के कर्मों के बन्धन से मुक्त कराने में समर्थ है, और सब प्रकार से सर्व परिज्ञा के अनुसार चलने वाला परम बुद्धिमान्, कर्मों के नाश करने में समर्थ और बन्ध मोक्ष का यथावत् अन्वेषण करने वाला है एवं वह कुशल, अर्थात ज्ञान, दर्शन और चारित्र को प्राप्त करने वाला, मिध्यात्व और कषाय के उपशम से न तो बद्ध है और न मुक्त है अथवा कुशल अर्थात् चार प्रकार के घातिकर्मों का क्षय करने वाला (तीर्थंकर वा सामान्य केवली) न तो बद्ध है और ( भवोपग्राही कर्म के सद्भाव से) न ही मुक्त है। तात्पर्य कि घातिकर्मों के क्षय होने के बाद उसको कर्म का बन्ध नहीं होता, इसलिए वह बद्ध नहीं और नाम गोत्र आदि अघातिकर्मों का वहां सद्भाव है। अतः वह कर्मों से सर्वथा मुक्त भी नहीं कहा जा सकता ।
हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि उपदेशक को स्व और पर- सिद्धान्त के साथ श्रोताओं की स्थिति, योग्यता एवं मान्यता का भी ज्ञान होना चाहिए । यदि वह परिषद् में उपस्थित व्यक्तियों की मान्यता से परिचित नहीं है; तो ऐसी स्थिति में दिया गया उपदेश और रूप में परिणत हो सकता है, उसका परिणाम उपदेशक की आशा के विपरीत आ सकता है।
श्रोताओं के विचारों को जाने बिना दिया गया उपदेश कभी-कभी उनकी उत्तेजना को बढ़ा देता है। अपने विश्वासों एवं मान्यताओं से विपरीत विचार सुनकर उनके विचारों में आवेश आ जाना स्वाभाविक है और फिर उन्हें संभालना वक्ता के लिए कठिन हो जाता है । आजकल सभाओं में कई बार ऐसे प्रसंग उपस्थित हो जाते हैं। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि धर्मोपदेशक मुनि को श्रोताओं के अभिप्राय