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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध छाया -अपि च हन्यात् अनाद्रियमाणः अत्रापिजानीहि श्रेय इति नास्ति कोऽयं पुरुषः कं च नतः ? एष वीरः प्रशंसितः यो बद्धान् प्रतिमोचकः ऊर्ध्वं अधः तिर्यग् दिशासु सः सर्वतः सर्वपरिज्ञाचारी न लिप्यते क्षणपदेन वीरः, स मेधावी अणोद्घातन खेदज्ञः यश्च बंधप्रमोक्षान्वेषी कुशलः पुनः नो बद्धः नो मुक्तः ! 440 पदार्थ - - जाण - हे शिष्य ! तू यह जान कि । इत्यपि - यहां पर भी । अवि-अपि शब्द संभावनार्थक है, जैसे कोई व्यक्ति । अणाइयमाणे - साधु के वाक्य का अनादर करता है। य हणे - और दण्ड आदि से मारता है, तो । सेयंति नत्थि - इस प्रकार कथा करनी श्रेयस्कर नहीं है ( कारण कि - राजादि के प्रतिकूल कही गई कथा लाभ के बदले हानि का ही कारण बन जाती है । तब किस प्रकार से धर्म कथा करनी चाहिए? केयं–कौन-यह। पुरिसे - पुरुष है । च - और फिर । कं-किस देव को । नए - नमस्कार करने वाला है, अर्थात् किस देव को मानता है (इस प्रकार जानकर धर्मकथा करनी चाहिए)। एस - यह व्याख्यान की विधि को जानने वाला | वीरे -कर्मों के विदारण में समर्थ पुरुष। पसंसिए - प्रशंसा के योग्य है, क्योंकि वह । जे–जो व्यक्ति । बद्धे - आठ प्रकार के कर्मों से बद्ध है उसको । परिमोयए - कर्म बन्धन से मुक्त कराने में समर्थ है। तथा वह । उड्ढ - ऊर्ध्व । अहं - नीची । तिरियं - मध्य । दिसासु - दिशाओं में - जो जीव रहते हैं उनको कर्म बन्धन से मुक्त कराने में समर्थ है। से- - वह वीर पुरुष । सव्वओ - सर्व प्रकार से । सव्व परिन्नाचारी - सर्व परिज्ञाओं का आचरण करने वाला अर्थात् विशिष्ट ज्ञान से युक्त । छण पएण-हिंसा के पद से । न लिप्पइ-लिप्त नहीं होता। वीरे - अतः वह वीर है। से - वह । मेहावी - बुद्धिमान् है, तथा वह। अणुग्घायणखेयन्ने - कर्मों के नाश करने में निपुण है । य - और वह । बंधपमुक्खमन्नेसी–बन्ध और मोक्ष का अन्वेषक - अन्वेषण करने वाला है। कुसले - चार प्रकार के घातिकर्मों का क्षय करने वाला - तीर्थंकर वा सामान्य केवली। पुणो- फिर वह । नोबद्धे - न तो घातिकर्मों से बद्ध होता है । नोमुक्के - और न मुक्त अर्थात् भवोपग्राही कर्म के सद्भाव से वह मुक्त भी नहीं । मूलार्थ - ऐसा होना भी संभव है कि श्रोताओं के अभिप्राय और योग्यता आदि का ज्ञान प्राप्त किए बिना उनको दिया गया धर्मोपदेश निष्फल या विपरीत फल
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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