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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
छाया -अपि च हन्यात् अनाद्रियमाणः अत्रापिजानीहि श्रेय इति नास्ति कोऽयं पुरुषः कं च नतः ? एष वीरः प्रशंसितः यो बद्धान् प्रतिमोचकः ऊर्ध्वं अधः तिर्यग् दिशासु सः सर्वतः सर्वपरिज्ञाचारी न लिप्यते क्षणपदेन वीरः, स मेधावी अणोद्घातन खेदज्ञः यश्च बंधप्रमोक्षान्वेषी कुशलः पुनः नो बद्धः नो मुक्तः !
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पदार्थ - - जाण - हे शिष्य ! तू यह जान कि । इत्यपि - यहां पर भी । अवि-अपि शब्द संभावनार्थक है, जैसे कोई व्यक्ति । अणाइयमाणे - साधु के वाक्य का अनादर करता है। य हणे - और दण्ड आदि से मारता है, तो । सेयंति नत्थि - इस प्रकार कथा करनी श्रेयस्कर नहीं है ( कारण कि - राजादि के प्रतिकूल कही गई कथा लाभ के बदले हानि का ही कारण बन जाती है । तब किस प्रकार से धर्म कथा करनी चाहिए? केयं–कौन-यह। पुरिसे - पुरुष है । च - और फिर । कं-किस देव को । नए - नमस्कार करने वाला है, अर्थात् किस देव को मानता है (इस प्रकार जानकर धर्मकथा करनी चाहिए)। एस - यह व्याख्यान की विधि को जानने वाला | वीरे -कर्मों के विदारण में समर्थ पुरुष। पसंसिए - प्रशंसा के योग्य है, क्योंकि वह । जे–जो व्यक्ति । बद्धे - आठ प्रकार के कर्मों से बद्ध है उसको । परिमोयए - कर्म बन्धन से मुक्त कराने में समर्थ है। तथा वह । उड्ढ - ऊर्ध्व । अहं - नीची । तिरियं - मध्य । दिसासु - दिशाओं में - जो जीव रहते हैं उनको कर्म बन्धन से मुक्त कराने में समर्थ है। से- - वह वीर पुरुष । सव्वओ - सर्व प्रकार से । सव्व परिन्नाचारी - सर्व परिज्ञाओं का आचरण करने वाला अर्थात् विशिष्ट ज्ञान से युक्त । छण पएण-हिंसा के पद से । न लिप्पइ-लिप्त नहीं होता। वीरे - अतः वह वीर है। से - वह । मेहावी - बुद्धिमान् है, तथा वह। अणुग्घायणखेयन्ने - कर्मों के नाश करने में निपुण है । य - और वह । बंधपमुक्खमन्नेसी–बन्ध और मोक्ष का अन्वेषक - अन्वेषण करने वाला है। कुसले - चार प्रकार के घातिकर्मों का क्षय करने वाला - तीर्थंकर वा सामान्य केवली। पुणो- फिर वह । नोबद्धे - न तो घातिकर्मों से बद्ध होता है । नोमुक्के - और न मुक्त अर्थात् भवोपग्राही कर्म के सद्भाव से वह मुक्त भी नहीं ।
मूलार्थ - ऐसा होना भी संभव है कि श्रोताओं के अभिप्राय और योग्यता आदि का ज्ञान प्राप्त किए बिना उनको दिया गया धर्मोपदेश निष्फल या विपरीत फल