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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 6
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उपदेश दे सकते हैं। क्योंकि उनके उपदेश में समभाव की प्रमुखता रहती है। वे महापुरुष समदर्शी होते हैं। उनके मन में धनी, निर्धन का, छूत-अछूत का, पापी-धर्मी का कोई भेद नहीं होता। उनका ज्ञान-प्रकाश उनकी उपदेश धारा किसी व्यक्ति विशेष, जाति विशेष, संप्रदाय विशेष, वर्ग विशेष के बंधनों से आबद्ध नहीं होती। वे जिस विशुद्ध भाव से एक ऐश्वर्य सम्पन्न व्यक्ति को उपदेश देते हैं, उसी भाव से घर-घर की खाक छानने वाले भिखारी को भी देते हैं। जिस भाव से एक निर्धन को देते हैं, उसी भाव से एक धनी को देते हैं। ऐसा नहीं कि गरीब को जो कुछ मन में आया, वह कह दिया और सेठ जी के आते ही ज़रा चिकनी-चुपड़ी बातें बनाने लगे। आगम में अनाथी मुनि का उदाहरण आता है। वे उस युग के एक महान् ऐश्वर्य सम्पन्न एवं शक्तिशाली सम्राट श्रेणिक को भी अनाथ कहते हुए नहीं हिचकिचाते
और निर्भयता के साथ श्रेणिक की अनाथता को सिद्ध कर देते हैं। जिसे श्रेणिक स्वयं स्वीकार कर लेता है। उस महामुनि ने केवल श्रेणिक की ही अनाथता नहीं बताई थी, अपितु समस्त पूंजीपतियों के धन-सम्पत्ति और राजाओं के ऐश्वर्य एवं सैनिक शक्ति के मिथ्याभिमान एवं अहंकार को अनावृत करके रख दिया था। तो कहने का तात्पर्य यह है कि भय प्राणियों को सन्माग पर लाने के लिए वे यथार्थ द्रष्टा कभी भी छोटे-बड़े का भेद नहीं करते। वे सबको समान भाव से उपदेश देते है। ... उपदेष्टा को सबके प्रति समभाव रखना चाहिए, उसके मन में भेद भाव नहीं होना चाहिए। परन्तु इसके साथ उसे परिषद् अर्थात् श्रोताओं की योग्यता, परिस्थिति एवं वहां के देश काल का भी ज्ञान होना चाहिए। यदि उसे इन बातों का पूरा-पूरा बोध नहीं है, तो उससे अहित होने की भी संभावना हो सकती है। अतः उपदेष्टा कैसा होना चाहिए, इसे बताते हुए सूत्रकार कहते हैं- मूलम्-अवि य हणे अणाइयमाणे; इत्थंपि जाण सेयंति नत्थि, केयं पुरिसे कं च नए? एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे परिमोयए, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु, से सव्वओ सव्वपरिन्नाचारी, न लिप्पइ छणपएणं वीरे, से मेहावी अणुग्घायणखेयन्ने, जे य बन्ध पमुक्खमन्नेसी कुसले पुण नो बद्धे नो मुक्के॥103॥