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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
से अन्यत्र गति नहीं करता। क्योंकि उसका लक्ष्य, उसका ध्येय आत्मा को समस्त कर्म बन्धनों से मुक्त-उन्मुक्त करना है। इसलिए उसके पग उसी पथ पर ही उठेंगे। जिसके पग उस मोक्ष-पथ पर बढ़ रहे हैं तो समझना चाहिए कि वह यथार्थ द्रष्टा है। इससे यह बात सिद्ध की है कि सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र का समन्वय ही मोक्ष मार्ग है। उक्त त्रिपथ की समन्वित साधना से ही आत्मा समस्त दुःखों से सर्वथा छुटकारा पा सकता है। यह ठीक है कि इस सूत्र में दर्शन और चारित्राचार का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। परन्तु ज्ञान और दर्शन दोनों सहभावी हैं। बिना ज्ञान के दर्शन, दर्शन के बिना ज्ञान का अस्तित्व नहीं रहता है। इसलिए 'अनन्यदर्शी और अनन्याराम' के द्वारा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की समन्वित साधना से ही निर्वाण पद बताया गया है।
इसलिए साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह पहले कर्मों के स्वरूप को जाने। क्योंकि दुःख के मूल कारण कर्म ही हैं। अतः उनके स्वरूप का बोध हुए बिना उनका त्याग कर सकना कठिन है। यह प्रश्न हो सकता है कि कर्मों का स्वरूप किस प्रकार जाना जाए? इसके लिए आगम में बताया गया है-कर्म की मूल प्रकृतियां आठ हैं और उनका चार प्रकार से बन्ध होता है-1. प्रकृतिबन्ध, 2. स्थितिबन्ध; 3. अनुभागबन्ध और 4. प्रदेशबन्ध। इनके स्वरूप को समझने से कर्म का स्वरूप भली-भांति समझ में आ जाता है।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'अणन्नदंसी और अणन्नारामे' पाठ की व्याख्या इस प्रकार की गई है-“अन्यद्रष्टुं शीलमस्येत्यन्यदर्शी यस्तथा नासावनन्यदर्शीयथावस्थित-पदार्थद्रष्टा, कश्चैवं भूतो? यः सम्यग्दृष्टिमौनीन्द्रप्रवचनाविर्भूततत्त्वार्थो, यश्चानन्यदृष्टिः सोऽनन्यामो-मोक्षमार्गादन्यत्र न रमते।” अर्थात् जो व्यक्ति यथार्थ द्रष्टा होता है, वह जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित सिद्धांत के अतिरिक्त अन्यत्र रमण नहीं करता और जो अपने चिन्तन-मनन, विचारणा एवं आचरण को अन्यत्र नहीं लगाता, वही तत्त्वदर्शी है, परमार्थदर्शी है और ऐसे ही तत्त्वदर्शी पुरुष तीर्थंकरों द्वारा प्ररुपित मोक्ष मार्ग का पथ बता सकते हैं, यथार्थ
1. इस विषय में विशेष जानकारी करने में लिए पाठक मेरे द्वारा लिखित 'जीक कर्म
संवाद' निबन्ध पढ़ें।