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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 6
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को। कुसला-निपुण पुरुष। परिन्नमुदाहरति-ज्ञ परिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग कर इस प्रकार कहते हैं। इइ कम्म-इस प्रकार कर्म को। परिन्नाय-जान कर। सव्वसो-सर्व प्रकार से। जे-जो। अणन्नदंसी-यथावस्थित पदार्थों को देखने वाला है। से-वह। अणन्नाराम-मोक्ष मार्ग के बिना अन्यत्र रमण नहीं करता। जे-जो। अणण्णारामे-मोक्ष मार्ग के विना अन्यत्र नहीं रमता है। से-वह। अणन्नदंसी-अनन्यदर्शी-यथार्थदर्शी है। जहा-जैसे। पुण्णस्स- पुण्यवान्
के आगे। कत्थइ-धर्म कथादि कहता है। तहा-उसी प्रकार। तुच्छस्स-निर्धन : के आगे। कत्थइ-कहता है, फिर। जहा-जैसे। तुच्छस्स-निर्धन के आगे। कत्थइ
कहता है। तहा-वैसे ही। पुण्णस्स-पुण्यवान के आगे। कत्थइ-कहता है। (केवल समभाव और निर्जरा के लिए ही उक्त दोनों के आगे धर्म कथादि कहता है)।
मूलार्थ-इस संसार में जीवों के लिए, जो दुःख के कारण बताए गए हैं, कुशल पुरुष उनका परिज्ञान करके त्याग कर देता है। इस प्रकार वह कर्म के स्वरूप को जानकर उससे छूट जाता है। जो यथार्थ द्रष्टा है वह मोक्ष पथ के अतिरिक्त अन्यत्र रमण नहीं करता और जो मोक्षमार्ग के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं रमता है, वही अनन्यदर्शी यथार्थ द्रष्टा है। अतः वह जैसे ऐश्वर्य सम्पन्न व्यक्ति को धर्मोपदेश देता है, मोक्ष मार्ग का पथ बताता है, उसी प्रकार निर्धन व्यक्ति को भी उपदेश देता है। जिस भाव से निर्धन को उपदेश देता है, उसी भाव से ऐश्वर्यवान् को भी उपदेश देता है। तात्पर्य यह है कि उसकी उपदेश धारा में प्राणिमात्र के प्रति समभाव एवं हित बुद्धि रही हुई है, उसमें बड़े-छोटे का भेद नहीं रहता। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जो साधक कुशल-बुद्धिमान है, वह संसार में उपलब्ध होने वाले दुःखों के कारण को जानकर उस मार्ग का परित्याग कर देता है। इस प्रकार वह दुःखों एवं कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है। फिर ऐसे व्यक्ति का मन संसार में नहीं लगता। वह संसार से ऊपर उठ जाता है। इसी बात को सूत्रकार ने इन शब्दों में व्यक्त किया है कि “जो अनन्यदर्शी है वह अनन्याराम है और जो अनन्याराम है वह अनन्यदर्शी है।” इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि जो यथार्थ द्रष्टा है-संसार एवं आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानता-पहचानता है, वह मोक्ष मार्ग