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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
लोगसन्नं - लोक संज्ञा को । वंता - वमन कर जो विचरता है । से वह है । मइमंमतिमान् । परिक्कमिज्जासि - संयमानुष्ठान में पराक्रम करे । त्तिबेमि- इस प्रकार मैं कहता हूँ।
वीरे - वीर पुरुष । अरइं- संयम में अरति को । न सहइ - सहन नहीं करता और फिर । वीरे - वीर पुरुष । रतिं - असंयम में रति को । न सहइ - सहन नहीं करता । जम्हा - जिससे । वीरे वीर पुरुष का । अविमणे - मन दूषित न हो । तम्हा-इसलिए। वीरे–वीर पुरुष । न रज्जइ - शब्दादि विषय एवं परिग्रह में मूर्छित नहीं होता है ।
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मूलार्थ - जो व्यक्ति ममत्व भाव का परित्याग करता है, वही स्वीकृत परिग्रह का त्याग कर सकता है। जिसके मन में ममत्व भाव नहीं है, वह मोक्षमार्ग का द्रष्टा है । अतः जिसने परिग्रह के दुष्परिणाम को जानकर उसका त्याग कर दिया है, वह बुद्धिमान है। क्योंकि जो लोक के स्वरूप को जानकर लोक संज्ञा का त्याग करता है, वहीं प्रबुद्ध पुरुष संयम साधना में पुरुषार्थ करता है।
वीर पुरुष संयम में अरति और असंयम में रति को सहन नहीं करते। वे रति -अरति दोनों का त्याग करते हैं। इसलिए वीर पुरुष शब्दादि विषयों में आसक्त नहीं होते।
हिन्दी - विवेचन
मुनि के लिए यह आवश्यक है कि वह परिग्रह का सर्वथा त्याग करे । पूर्ण अपरिग्रही व्यक्ति ही मुनित्व को स्वीकार कर सकते हैं और इसके लिए - पूर्ण अपरिग्रही बनने के लिए केवल बाह्य पदार्थों का त्याग करना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु उनकी ममता, आसक्ति एवं मूर्छा का परित्याग करना आवश्यक है। हम यों भी कह सकते हैं कि ममत्व का त्याग करने पर ही व्यक्ति अपरिग्रह की ओर बढ़ सकता है । जब तक पदार्थों की लालसा, भोगेच्छा एवं आसक्ति मन में चक्कर काट रही है, तब तक बाह्य पदार्थों का त्याग कर देने पर भी उसे अपरिग्रही या त्यागी नहीं कहा है । आगम में स्पष्ट शब्दों में कहा है- “ कि जो साधक वस्त्र, सुगंधित पदार्थ, पुष्पमाला, आभूषण, स्त्री आदि का उपभोग करने में स्वतन्त्र नहीं है या उसे ये साधन उपलब्ध नहीं हैं; परन्तु उसके मन में भोगेच्छा अवशेष है तो वह त्यागी नहीं कहा जा सकता है। त्यागी