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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 6
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यह है-पथ-विस्तीर्ण 'वयमिति वयन्ति पर्यटन्ति प्राणिनःस्वकीयेन कर्मणा यस्मिन स वयः-संसारस्तं करोति, तथा वयः अवस्था विशेषः' अर्थात् यह जीव व्रत का भंग करता है और परिणामस्वरूप संसार में परिभ्रमण करता है।
इसका निष्कर्ष यह निकला कि प्रमाद के वश मनुष्य अपने पथ से भटक जाता है और विभिन्न दुष्कार्यों में संलग्न होता है। इसलिए मुमुक्षु पुरुष को प्रमाद का त्याग करके संयम में प्रवृत्त होना चाहिए, जिसके कारण वह सारे कर्मों को क्षय करके पूर्ण सुख को प्राप्त कर सके।
: व्यक्ति सुख-दुःख जो कुछ भी पा रहा है, वह स्वकृत कर्म का फल है। स्वयं प्रमाद एवं आसक्ति का सेवन करके ही वह मूढ़ भाव को प्राप्त होता है। अतः सबसे पहले आसक्ति, ममत्व एवं मूभिाव का त्याग करना चाहिए। इसका उपदेश देते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-जे ममाइयमई जहाइ से चयइ ममाइयं, से हु दिट्ठपहे मुणी जस्स नत्थि ममाइयं, तं परिन्नाय मेहावी विइत्ता लोगं वंता लोगसन्नं से मइमं परिक्कमिज्जासि त्ति बेमि॥
नारइं सहइ वीरे, वीरे न सहइ रतिं। जम्हा अविमणे वीरे, तम्हा वीरे न रज्जइ॥99॥
छाया-यो ममायित मतिं जहाति, स त्यजति ममायितं, स खलु दृष्ट पथः मुनिः, यस्य नास्ति ममायितं, तं परिज्ञाय मेधावी विदित्वा लोकं वांत्वा लोके संज्ञां स मतिमान् प्राक्रमेत, इति ब्रवीमि।"
नारतिं सहते वीरः, वीरो न सहते रतिं। यस्माद् अविमनो वीरः, तस्माद् वीरो न रज्यति॥1॥
पदार्थ-जे-जो। ममाइयमई-ममत्व बुद्धि को। जहाइ-छोड़ता है। से-वह। ममाइयं-स्वीकृत परिग्रह को। चयइ-छोड़ता है। से-वह। हु-निश्चय ही। मुणी-मुनि। दिट्ठपहे-मोक्ष पथ को देखने वाला है, तथा। जस्स-जिसके। ममाइयं-स्वीकृत परिग्रह। नत्थि-नहीं है, तथा। तं-उस परिग्रह के स्वरूप को। परिन्नाय-जानकर। मेहावी-बुद्धिमान् फिर। विइत्ता-जानकर । लोग-लोक को।