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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 6
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वही कहला सकता है, जो कांतकारी, प्रियकारी प्राप्त भोगों को भोगने में स्वतन्त्र एवं समर्थ होते हुए भी उनका एवं उनकी वासना का त्याग कर देता है।"
इससे स्पष्ट होता है कि आसक्ति का त्याग करने वाला व्यक्ति ही परिग्रह का त्याग कर सकता है। अतः साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह पहले आसक्ति के कारणों का परिज्ञान करे। इसमें यह बताया गया है कि लोक संज्ञा से आहार, वस्त्र आदि भोग्य पदार्थों की इच्छा-आकांक्षा मन में जाग-सकती है। अतः मुनि को लोक संज्ञा का परित्याग करके संयम में संलग्न रहना चाहिए। - प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित गाथा के चारों पदों में 'वीर' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि संयम साधना में अरति का, असंयम में रति का, मन में अमध्यस्थ भाव का और शब्दादि विषयों में आसक्ति उत्पन्न होने का प्रसंग उपस्थित होने पर भी जो अपने मन को, विचार को एवं आत्मा को उस प्रवाह में नहीं बहने देता, वही वास्तव में वीर है। योद्धा का वीरत्व तभी माना जाता है, जब वह बलवान शत्रु के बाणों के प्रवाह में, भीषण बम वर्षा में भी अपने मार्ग को छोड़कर नहीं भागता, अपितु शत्रु को परास्त करके छोड़ता है। इसी प्रकार विषय-वासना एवं कषायों के प्रबल झोंकों में भी जो लड़खड़ाता नहीं, उसे ही वीर कहा गया है और ऐसे संयमनिष्ठ साधक का बार-बार वीर शब्द का प्रयोग करके आदर-सत्कार किया गया है। - प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'दिट्ठपहे' पद भी इस अर्थ को परिपुष्ट करता है। इसका अर्थ है-दृष्टो ज्ञानादिको मोक्षपथो येन स दृष्टपथः” जिस व्यक्ति ने ज्ञानादि रूप मोक्ष मार्ग को सम्यक्तया देख लिया है, उस मुनि को दृष्टपथ कहा गया है। यदि इसे 'दृष्ट भय' पढ़ा जाए तो इसका अर्थ होगा-सात भय का परिज्ञान करके उनकी उत्पत्ति के मूल कारण परिग्रह का जिसने त्याग कर दिया है।
'मइम' का अर्थ है-बुद्धिमान् । अर्थात् जिसमें सत्-असत् को समझने की बुद्धि 1. वत्थगन्धमलंकारं इत्थिओ सयणाणि य। अच्छन्दा जे न भुञ्जन्ति न से चाइत्ति वुच्चइ॥ जे य कन्ते पिए भोए लद्धे विप्पिट्टि कुव्वइ। साहीणे चयइ भोए से हु चाइ त्ति बुच्चइ॥
-दशवैकालिक 2, 2, 3