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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
जितना-जितना व्यक्ति शान्त होता जाता है, उतना ही स्थूल से सूक्ष्म राग-द्वेष
कभी पता चलता है ।
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‘अहो भागं जाणई, उड्ढ भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ ।' अधोलोक, मध्य लोग, ऊर्ध्वलोक ।
इसका एक अर्थ है, इस विश्व के तीनों लोक । दूसरा अर्थ है - शरीर का अधोभाग, मध्य भाग और ऊर्ध्व भाग, तीसरा - कारण, परिस्थिति और परिणाम ।
कारण-अधोभाग-भूतकाल
परिस्थिति - मध्य भाग - वर्तमान
परिणाम - ऊर्ध्वभाग - भविष्यकाल ।
वह इन तीनों लोकों को देखता है। प्रथम अर्थ सम्पूर्ण ज्ञानी की अपेक्षा से है। द्वितीय अर्थ-साधारण साधक की अपेक्षा से है। इसमें साधना की अपेक्षा से मन भी आ सकता है। लेकिन तब वह बहुत ही गहरी बात हो जाएगी। वर्तमान वृत्ति के पीछे रहा हुआ पुरातन संस्कार अधोभाग । वर्तमान वृत्ति मध्य भाग और उस वृत्ति का परिणाम ऊर्ध्व भाग। तीसरा अर्थ - आत्मज्ञानी की अपेक्षा से है । वह प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति को अपनी ज्ञानदृष्टि से देखता हुआ कारण और परिणाम सहित सभी को जानता है।
गड्दिए लोए : जो इस लोक में मूर्च्छित होता है, वह 'अणु परियट्टमाणे' अर्थात् बार-बार यहीं पर घूमता रहता है । वह यह भी देखता है कि देखो मेरा मन कितना मूर्च्छित है और मन की परिस्थितियों को देखते हुए यह भी देखता है कि मन की वृत्तियों में मूर्च्छित रहने के कारण पुनः पुनः उन्हीं वृत्तियों में घूम रहा हूं। वह यह भी देखता है कि मूर्च्छित रहने के कारण कितनी बार मैं पुनः पुनः घूम चुका हूँ।
संधि वित्ता : संधि का अर्थ होता है, प्रथम ग्रन्थि - अर्थात् गांठ, वह इस ग्रन्थ को जान लेता है। कर्मों की ग्रन्थि, कषायों की ग्रन्थि, जितना - जितना ग्रन्थि को जानता है, उतना उतना मुक्त होता है । वह देखता है कि देखो में किस प्रकार ग्रन्थि को बाँध रहा हूँ। वह यह भी देखता है कि इस ग्रन्थि के बंधन का कारण क्या है और परिणाम क्या है और वह यह भी देखता है कि इन ग्रन्थियों के कारण ही बन्धन और