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________________ अध्यात्मसार:5 417 परिभ्रमण है। तब वह फिर ग्रन्थि से विरत होता है, ग्रन्थि से पीछे हटता है और गांठों को खोलने की शुरूआत करता है, क्योंकि जान-बूझ कर गांठों को कौन बाँधेगा? अज्ञानवश ही हम गांठें बाँध रहे हैं। इन गांठों का ज्ञान होते ही, ‘संधि विइत्ता मच्चिएहिं' अर्थात् उनसे मुक्ति होती है। ____ सन्धि : का दूसरा अर्थ है-क्षण अर्थात् उचित अवसर। दीर्घद्रष्टा इस उचित अवसर को जानकर इसका उपयोग करता है। संस्कारों से मुक्ति का अवसर और बन्धनों से मुक्त होने की सन्धि विशेष रूप से कहाँ प्राप्त होती है? इस मर्त्यलोक में, मनुष्य लोक में, जो साधक-दीर्घद्रष्टा है, वह इस अवसर को जान लेता है। जे बद्ध पडिमोयए : बन्धनों से मुक्त होने हेतु, ग्रन्थियों से मुक्त होने के लिए उपयोग करता है वह वीर है। ऐसा वीर जो बन्धनों से मुक्ति की ओर बढ़ जाता है अथवा जो बन्धनों से मुक्त हो गया है, वह प्रशंसनीय है। __. एस वीरे पसंसिए : इस प्रकार जो आयत चक्खू दीर्घद्रष्टा है और अपनी दीर्घदृष्टि से 'लोग विपस्सी' इस लोक को विशेष रूप से देखता है, वह वीर है, वह प्रशंसनीय है। .. जहां अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो। 1. प्रथम अर्थ : जैसे मेरे भीतर मेरा स्वरूप है, वैसा ही बाहर में सभी का स्वरूप है। स्वरूप दृष्टि से सभी एक हैं। • 2. दूसरा अर्थ : जैसी मेरे अन्तर की दृष्टि है, वैसा ही मेरे बाहर का जगत् है। जैसा मुझे बाहर का जगत् प्रतीत होता है, वैसी मेरी अन्तर की दृष्टि है। ___3. तीसरा अर्थ : जैसा मेरा शरीर और मन परिवर्तित हो रहा है, वैसे ही सम्पूर्ण जगत् में परिवर्तन हो रहा है। ___ 4. चौथा अर्थ : जैसा मेरा शरीर नश्वर है, वैसा ही आसपास सभी कुछ नश्वर है। मेरा शरीर पुद्गल का है और पुग़ल जगत् का एक हिस्सा है। निष्कर्षतः व्यक्ति का स्वयं के सम्बन्ध में जो अनुभव होगा, वैसा ही वह बाहर सम्पूर्ण जगत् को देखेगा। . अशुचि भावना का अर्थ : यह देखना नहीं है कि देखो इस शरीर में कितनी गन्दगी है। मूल बात देखने योग्य यह है कि इस शरीर में जो पुद्गल हैं, उन पुद्गलों
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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