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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
ऊँकार का ध्यान उच्चारण करते हुए साथ में अथवा उच्चारण करने के पश्चात् दोनों विधि से कर सकते हैं अथवा बाद में भी कर सकते हैं। आज्ञा-चक्र पर ऊँकार का ध्यान करना आसान है; परन्तु इससे अच्छा यह है कि पहले हृदयचक्र में शुरूआत करें, वहाँ जब ध्यान सध जाए, तब आज्ञा चक्र पर करना ठीक है। जब आज्ञाचक्र पर भी सध जाए, तब फिर सहस्रार चक्र पर ध्यान करना चाहिए। यहाँ ध्यान सधने का अर्थ है, ऊँकार की स्थापना करना एवं उसके साथ रहना। इस प्रकार करते-करते जब व्यक्ति पूरी तरह लीन हो जाए, बाकी सब कुछ भूल जाए, केवल उसी में लीन हो जाए, तब वहाँ ध्यान सधता है।
आयत् चक्खू : जो अर्थ इस सूत्र का आप ध्यान को लेकर करते हैं, वह भी कर सकते हैं। वहाँ भी अर्थ तो यही होगा दीर्घद्रष्टा। लेकिन जब हम ध्यान के परिप्रेक्ष्य में दीर्घद्रष्टा कहेंगे तब दीर्घद्रष्टा साधना के रूप में आएगा, अवस्था के रूप में नहीं। यहाँ पर दीर्घद्रष्टा, अर्थात् साधना की दृष्टि से शरीर और मन को देखने वाला अर्थ होगा। इस परिप्रेक्ष्य में दीर्घद्रष्टा का आत्मज्ञानी होना आवश्यक नहीं है। कोई भी साधारण व्यक्ति ‘साधक' भी दीर्घद्रष्टा हो सकता है। ऐसा दीर्घद्रष्टा, शरीर और मन को-विचारों को विशेष रूप से देखता है।
लोगविपस्सी : लोक का अर्थ बहुत विस्तृत है। लोक का प्रथम अर्थ है-सारा. जगत् तीनों लोक। लोक का दूसरा अर्थ है हम जहाँ पर भी हैं, हमारे आसपास जो कुछ भी है, उसे विशेष रूप से देखना। वह सम्पूर्ण लोक तो नहीं देखता परन्तु जो कुछ भी देखता है, वह विशेष रूप से देखता है। उसके पास वह ज्ञान दृष्टि है, दृष्टि में वह गहराई है कि जो कुछ भी देखता है, उसे वह विशेष रूप से देखता है। .
लोक का अर्थ है : यह शरीर और मन।
इस प्रकार प्रथम अर्थ में शेष दोनों अर्थ भी समाविष्ट हो जाते हैं। द्वितीय अर्थ में तीसरा अर्थ अपने आप आ जाता है। तीसरे में केवल तीसरा अर्थ है।
प्रथम अवस्था सम्पूर्ण ज्ञानी, केवलज्ञानी की है। द्वितीय अवस्था आत्मज्ञानी की है और तीसरी अवस्था साधारण साधक की है। साधना करते-करते अवस्था बदलती है। लोक को वह देखता है।
किस प्रकार-विपस्सी-विशेष रूप से। जो देखने वाला है, उसका नाम