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________________ 410 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध करने से उसकी शरण में दृढ़ता आती है। अभिग्रह करना आवश्यक नहीं है, यह एक तप है। अभिग्रह में काल की मर्यादा का प्रश्न नहीं है कि इस काल तक अभिग्रह हुआ तो ठीक है, अन्यथा ऐसे ही ग्रहण कर लूँगा। इसमें तो कोई परीक्षा ही नहीं हुई। परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर व्यक्ति आगे जाएगा। तब तो परीक्षा का महत्त्व है। यदि आगे जाना निश्चित ही हो, चाहे परीक्षा में उत्तीर्ण हो या न हो, तब फिर परीक्षा का कोई महत्त्व नहीं है। यही बात अभिग्रह के सम्बन्ध में है। भगवान ने अपने साधनाकाल में अनेक अभिग्रह किये पर किसी में भी काल की कोई मर्यादा नहीं थी। वे तो अपने स्वभाव की शरण में थे। इन अभिग्रहों से उनकी शरण में स्थिरता और दृढ़ता आयी। __ ऐसे तो साधु की परीक्षा रोज होती है। फिर भी अभिग्रह अपने आप में एक विशेष तप है। परीक्षा इन अर्थों में कि साधु संग्रह करके नहीं रखता। सुबह को मिला है पता नहीं शाम को मिले या न मिले। पर वह शरण में, विश्वास में जीता है कि आवश्यक हुआ तो अपने आप मिलेगा। उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं है। साधारणतः व्यक्ति व कई साधुगण भी इच्छाओं में जीते हैं। वे भविष्य के लिए संग्रह करके रखते हैं, जबकि साधुजनों के नियम हैं कि रात को संग्रह करके नहीं रखना, तब वह नहीं रखेगा। लेकिन किसी को दे देगा कि आप मेरे लिए संभालकर रखें। यह सब मन की गतिविधियाँ हैं। जब संग्रह ही नहीं करना तब न स्वयं करना, न ही अपने लिए किसी से करवाना, क्योंकि संग्रह करने पर चाहे स्वयं करें चाहे किसी से करवाएं, साधक का मन उन्हीं वस्तुओं में अटका रहता है। उसे पुनः-पुनः खयाल आता है कि जो मैंने संग्रह करके रखा है, वह सुरक्षित है या नहीं। मन साधना की अपेक्षा साधनों में अटक जाता है। साधक के लिए साधन होते हैं, न कि साधन के लिए साधक। जैसे तुमने कोई कीमती कलम रखी तो फिर पुनः-पुनः यही चिन्ता होगी कि कहीं कोई मेरी कलम उठाकर न ले जाए। तब अच्छा है कलम छोड़ दो। जिस चीज की भी चिन्ता हो जाए, उसे छोड़ देना ही अच्छा है। अभिग्रह ग्रहण करने योग्य किसी भी वस्तु के सम्बन्ध में यह कर सकते हैं। मूलम् : आययचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ, उड्ढं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ, गड्ढिाए लोए अणुपरियट्टमाणो,
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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