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अध्यात्मसार: 5
हमारी साधना से सम्बन्ध सभी कुछ समझाते हुए श्रावकजनों को गरम पानी के उपयोग हेतु प्रेरित करना। इस प्रकार ऐसे श्रावकों के मध्य रहते हुए साधुजनों की साधना अल्प प्रयास से उत्थान प्राप्त करती है ।
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मूलम् : दुहओ छेत्ता नियाइ, वत्थं पडिग्गहं कबलं पायपुंच्छणं . उग्गहणं च कडासणं एएसु चैव जाणिज्जा ॥ 2/5/90
· मूलार्थ : राग-द्वेष युक्त की गयी प्रतिज्ञा का छेदन करने वाला, मोक्ष-मार्ग पर गतिशील साधक वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, उपाश्रयादि स्थान और आसन आदि पदार्थों के लिए जो गृहस्थ आरंभ करते हैं, उसे भली-भांति जाने और उसमें सदोष का त्याग करके, निर्दोष पदार्थों को स्वीकार करे ।
यहाँ पहले दिया था–दुहओ छेत्ता - दोनों का छेदन करने वाला ।
नियाइ-निवृत्ति के मार्ग पर चलने वाला । निवृत्ति के मार्ग पर चलने वाला कैसा हो, राग और द्वेष को छेदन करने वाला होगा। ऐसे व्यक्ति को जब ग्रहण करना हो तो ‘जाणिज्जा' यह जानकर और देखकर लेना कि प्रथम इस वस्तु की मुझे आवश्यकता है या नहीं। अनावश्यक वस्तुओं को, आहार को ग्रहण न करें। ऐसा भी नहीं कि कोई विशेष व्यक्ति दे रहा है तो ले लूं, वास्तव में आवश्यक हो तभी लेना ।
दूसरा : जिस वस्तु को ग्रहण करना है, वह मेरे योग्य है या नहीं। वह मेरी आवश्यकतानुसार है या नहीं ।
“ तीसरा : किस प्रकार से वस्तु को ग्रहण करना - सम्यक् प्रकार से वस्तु को ग्रहण करना। सम्यक् प्रकार से, अर्थात् जो भी गवेषणा की मर्यादा है, उसके अनुसार ।
अपडिन्ने ः अर्थात् प्रतिज्ञा से रहित - प्रतिज्ञा से रहित अर्थात् आग्रह से रहित । एकान्त से रहित अनेकान्त । इसलिए साधु के व्रत होते हैं प्रतिज्ञा नहीं । इसी प्रकार आहार आदि ग्रहण करने से पूर्व जो संकल्प किया जाता है, उसे अभिग्रह कहते हैं । यह अभिग्रह किसलिए होता है? शरण में हमारी जो आस्था है, अभिग्रह उसकी परीक्षा है। मैं धर्म की शरण में हूँ तो जो भी आवश्यक होगा, वह मुझे मिलेगा । अभिग्रह अर्थात् इस प्रकार की परिस्थितियाँ हुईं तो मैं ग्रहण करूँगा । अभिग्रह करके वह देखता है कि आवश्यक हुआ तो अभिग्रह धारण करने पर भी मिलेगा । ऐसा