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अध्यात्मसार: 5
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संधिं विइत्ता इह मच्चिएहिं, एस वीरे पसंसिए जे बद्धे पडिमोयए, जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा अंतो, अंतो अंतो पूइदेहंतराणि पासइ पुढोवि सवंताइं पंडिए पडिलेहाए | 12/5/94
मूलार्थ : दीर्घदर्शी लोक के स्वरूप को जानने वाला, लोक के अधोभाग, ऊर्ध्व भाग और तिर्यग्भाग को जानता है । वह यह भी जानता है कि काम में मूर्च्छित जन संसारचक्र में परिभ्रमण कर रहा है, इस मनुष्य लोक में और मनुष्य जन्म में ज्ञानादि प्राप्त करने के अवसर को जानकर जो काम से निवृत्त हो गया है, वही वीर और विद्वानों द्वारा प्रशंसित है। स्वयं बन्धन - मुक्त होने से वही दूसरों को भी बन्धन से मुक्त करा सकता है । जैसे यह शरीर मल-मूत्रादि के कारण भीतर से दुर्गन्ध युक्त है, उसी प्रकार बाहर से भी है । जिस प्रकार बाहर से है, उसी प्रकार भीतर से है । शरीर के भीतर - देह के विभागों में दुर्गन्ध भरी हुई होती है और शरीर के नवों द्वारों में से वह मल के रूप में बाहर निकलती रहती है । अतः पुरुष इसके यथार्थ स्वरूप का अवश्य ही अवलोकन करें ।
1. आंयय चक्खू : अर्थात् दीर्घद्रष्टा, 1. दीर्घद्रष्टा का साधारण अर्थ होता है दूर तक देखने वाला । 2. दूसरा अर्थ है जो सम्पूर्ण देखता है। यहाँ दोनों ही अर्थ अभिप्रेत हैं। सम्पूर्ण को अर्थात् जो दृश्य को ही नहीं, अदृश्य को भी देख लेता है। केवल रूप को ही नहीं अरूप को भी देखता है । जो सामने प्रतीत हो रहा है वही नहीं, लेकिन उस प्रतीति के पीछे जो अप्रतीत है, उसे भी देख लेता है। उसके पास ज्ञान की दृष्टि हैं, गहराई है। अतः जो साधारण मनुष्य नहीं देख पाता, दीर्घ द्रष्टा उस सत्य को भी साक्षात् करता है।
साधारण मनुष्य वही देखता है, जो इन्द्रियों की पकड़ में है। लेकिन जो दीर्घद्रष्टा होता है, वह जो इन्द्रियों की पकड़ में नहीं है, उसे भी देखता है। यह एक अर्थ हुआ दीर्घद्रष्टा का ।
दूसरा अर्थ है - जो कारण और परिणाम दोनों को जानता है जैसे- पहले के सूत्र में आया था, कर्मों के स्वरूप को जानने वाला 'एयाणुपस्सी - 79' साधारण व्यक्ति_ केवल वर्तमान परिस्थिति को देखते हैं । दीर्घद्रष्टा उस परिस्थिति का क्या भूतकाल है और आगे परिणाम क्या आएगा, यह भी देखता है। अभी जो वर्तमान है, उसका भूत