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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
वेदनाओं का संवेदन करता है। इस प्रकार प्रबुद्ध साधक मोहकर्म के विपाक को जानकर वासना का परित्याग करता है, वह भोगों से सदा दूर रहता है। ____ वह विषय-वासना से निवृत्त होकर अपने कर्म के बन्धन को तोड़ता है और दूसरों के कर्म बन्धन काटने में भी सहायक बनता है। यह सत्य है कि आत्मा स्वयं ही अपने बन्धनों को तोड़ती है। कोई भी शक्ति न उसे बन्धनों से बांध सकती है
और न मुक्त ही कर सकती है। फिर भी, यहां जो बन्धन तोड़ने में सहायक शब्द का प्रयोग किया है, उसका तात्पर्य इतना ही है कि विषय-वासना से मुक्त बना जीव किसी भी बद्ध जीव के बन्धन तोड़ता नहीं है, प्रत्युत उसे बन्धन तोड़ने का मार्ग दिखा देता है, उपाय बता देता है, इसी कारण उसे निमित्त रूप से सहायक माना है। बन्धन तोड़ने का प्रयत्न तो आत्मा को ही करना होगा। वह तो केवल पथप्रदर्शक बन सकता है। ___ उसने जीवन के वास्तविक स्वरूप को जान लिया है कि वह मल-मूत्र से भरा हुआ है। जैसे शरीर के अन्दर मल-मूत्र है, उसी प्रकार बाहर भी मल लगा हुआ है
और जैसे बाहर से मल-युक्त है उसी प्रकार भीतर से भी है। उसके नव द्वारों से सदा मल का प्रस्रवण होता रहता है। इस प्रकार अपवित्रता के भंडार को देखकर वह अशुचि भावना भाता है और दूसरों को भी इस भावना को भाने के लिए प्रेरित करता है। उनका ध्यान भी इस अशुचि के पुतले से निवृत्त होने की ओर लगाता है। __ प्रस्तुत सूत्र में अशुचि भावना का बड़ा ही सुन्दर विवेचन किया गया है। साधक अपने अन्दर एवं बाहर भरी हुई अपवित्रता को तथा समय-समय पर होने वाले कुष्ठ आदि रोगों से होने वाली शारीरिक विकृति एवं घाव आदि से झरने वाले रक्त, पीप आदि को देखकर वह सोचता है कि यह शरीर कितना विकृत है और इसके भोग भी क्या हैं-मात्र अशौच्य को बढ़ाने वाले! उससे मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक अशुद्धि की ही अभिवृद्धि होती है। अतः प्रबुद्ध साधक इस भावना के द्वारा भोगों की निस्सारता को जानकर उनसे निवृत्त हो जाता है। ___ इसके अतिरिक्त प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त “आययचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहोभागं जाणइ उड्ढ भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ” वाक्य में 'ॐ' की ध्वनि भी स्पष्ट प्रतिभासित होती है। क्योंकि जो महापुरुष तीनों लोक के स्वरूप को