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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 5
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जो बद्धे-जो बंधे हुओं को। पडिमोयए-बन्धनों से मुक्त करता है। जहा-जैसे। अन्तो-अन्दर से यह शरीर मल-मूत्र से अपवित्र है, उसी प्रकार। वाहि-बाहर से भी मलयुक्त है, फिर। जहा-जैसे। बाहिं-बाहर से मलयुक्त है, उसी प्रकार। अन्तो-भीतर से भी है। अन्तो अन्तो-शरीर के मध्य-मध्य में। पूइदेहन्तराणिपूति-शरीर के अन्तर्भाग में पूति व देह की अवस्था को। पासइ-देखता है। पुढोवि-पृथक्-पृथक् ही। सवंताई-स्रवते हैं-अर्थात् नवद्वारों से मल का स्राव होता रहता है, अतः। पंडिए-पंडित पुरुष। पडिलेहाए-इनका प्रत्यवेक्षण करे, इनके स्वरूप को देखे।
• मूलार्थ-दीर्घदर्शी लोक के स्वरूप को जानने वाला, लोक के अधोभाग, ऊर्ध्व भाग और तिर्यग्भाग को जानता है। और वह यह भी जानता है कि काम में मूर्छित जन संसारचक्र में परिभ्रमण कर रहा है। इस मनुष्य लोक में और मनुष्य जन्म में ज्ञानादि प्राप्त करने के अवसर को जान कर जो काम से निवृत्त हो गया है, वही वीर और विद्वानों द्वारा प्रशंसित है। स्वयं बन्धन-मुक्त होने से वही दूसरों को भी बन्धन से मुक्त करा सकता है। जैसे यह शरीर मल-मूत्रादि के कारण भीतर से दुर्गन्ध युक्त है, उसी प्रकार बाहर से भी है तथा जिस प्रकार बाहर से है, उसी प्रकार भीतर से है। शरीर के भीतर-देह के विभागों में दुर्गन्ध भरी हुई होती है और शरीर के नवों द्वारों में से वह मल के रूप में बाहर निकलती रहती है। अतः पुरुष इसके यथार्थ स्वरूप का अवश्य ही अवलोकन करे। हिन्दी-विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि काम-भोगों से वही व्यक्ति विरक्त हो सकता है, जो दीर्घदर्शी है। अर्थात् जो काम भोगों से प्राप्त होने वाली स्थिति को भी देखता है। इसलिए उसे आयतचक्षु-दीर्घदर्शी के साथ लोकदर्शी भी कहा है। इसका अभिप्राय यह है कि वह सम्यग् ज्ञान के द्वारा लोक के स्वरूप को जान लेता है। उसे वह स्पष्ट हो जाता है कि लोक का आधार विषय-वासना ही है। यह हम पहले ही देख चुके हैं कि विषय-वासना मोहनीय कर्म जन्य है और मोह कर्म ही लोक में परिभ्रमण कराने वाला है। इसके वशीभूत जीव विभिन्न गतियों में शुभाशुभ अनेक