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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
नहीं जा सकता। इसलिए वासना, इच्छा एवं आकांक्षा मन में ही रह जाती है और मानव आगे की यात्रा के लिए चल पड़ता है। इससे स्पष्ट है कि वासना की आग मनुष्य को सदा जलाती रहती है और उसमें प्रज्वलित मनुष्य विषय-वासना की पूर्ति न हो सकने के कारण उसके लिए चिन्ता-शोक करता है, मन में खेद करता है और रोने लगता है। इस प्रकार वासना के ताप से सदा सन्तप्त रहता है।
इसलिए साधक को प्रमाद का त्याग करके सदा विषय-भोगों से दूर रहना चाहिए। क्योंकि जो व्यक्ति काम-भोग के दुष्परिणाम को जानकर विषय-भोगों में नहीं फँसता, वह सदा सुखी रहता है और पूर्ण सुख-शांति को प्राप्त करता है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-आययचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ, उड्ढं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ, गढिए लोए अणुपरियट्टमाणे, संधिं विइत्ता इह मच्चिएहिं, एस वीरे पसंसिए जे बद्धे पडिमोयए, जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा अंतो, अंतो अंतो पूइदेहंतराणि पासइ पुढोवि सवंताई पंडिए पडिलेहाए॥94॥
छाया-आयतचक्षुः लोकविदर्शी (लोकं विपश्यति) लोकस्याधो भागं जानाति ऊर्ध्वं भागं जानाति तिर्यग्भागं जानाति गृद्धो लोकः अनुपरिवर्तमानः सन्धिं विदित्वा इहमत्र्येषु एष वीरः प्रशंसितः यो बद्धान् प्रतिमोचयति यथा अन्तस्तथा बहिस्तयथा बहि थान्तः, अन्तेऽन्ते पूतिदेहान्तराणि पश्यति पृथगपि स्रवन्ति पण्डितः प्रत्युपेक्षेत।
पदार्थ-आययचक्खू-दीर्घदर्शी। लोगविपस्सी-लोक के स्वरूप को जानने वाला। लोगस्स-लोक के। अहोभागं-अधो भाग को। जाणइ-जानता है। उड्ढभाग-ऊर्ध्व भाग को। जाणइ-जानता है। तिरियं भागं-तिर्यग् भाग को। जाणइ-जानता है। गढिए लोए-प्रमादी लोग काम भोगो में मूर्छित हैं। अणुपरियट्टमाणे-संसार चक्र में परिभ्रण करने वाला। इह मच्चिएहि-इस मनुष्य लोक में। संधिं विइत्ता-ज्ञानादि के प्राप्त करने का अवसर जानकर, जो काम-भोगों का परित्याग करता है। एस वीरे-वही वीर है। पसंसिए-वही प्रशंसा के योग्य है।