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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 5
"दोषों का प्रविष्ट होना स्वाभाविक है । जैसे मकान के चारों ओर लगी हुई आग की ज्वाला में अपने मकान का आग के प्रभाव से सर्वथा अछूता रहना असम्भव है । उसी प्रकार जिस साधक के मन में राग-द्वेष की ज्वाला प्रज्वलित है, उस समय की गई विशुद्ध प्रतिज्ञा भी उस आग से निर्लिप्त नहीं रह सकती, उस पर उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता । अतः साधक को चाहिए कि वह राग-द्वेष की धारा का छेदन करे । यदि कभी राग-द्वेष की आग प्रज्वलित हो उठी हो तो पहले उसे उपशान्त करे, उसके बाद शान्त मन से प्रतिज्ञा धारण करे ।
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इससे स्पष्ट हुआ कि साधु राग-द्वेष का परित्याग करके संयम में प्रवृत्ति करे । इससे उसके मन में चंचलता नहीं रहेगी और दृष्टि में धूंधलापन एवं विकार नहीं रहेगा। इससे लाभ यह होगा कि वह अपनी की गई प्रतिज्ञा तथा जीवन में और की जाने वाली प्रतिज्ञाओं का भली-भांति परिपालन कर सकेगा । उस साधु की प्रतिज्ञा है कि वह किसी भी प्रकार के दोष - हिंसा आदि का सेवन न करे और न उस के निमित किसी प्रकार का आरम्भ - समारम्भ किया जाए । इस प्रतिज्ञा का पालन राग-द्वेष का छेदन कर के ही किया जा सकता है। क्योंकि साधना में सहायकभूत वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों की आवश्यकता होती है और उनके लिए गृहस्थ अनेक प्रकार के दोष लगाकर भी साधु को दे सकता है। यदि साधु के मन में राग-द्वेष है, या यों कहिए कि पात्र आदि देने वाले गृहस्थ के प्रति अनुराग है, तो वह अपने साधना पथ से फिसल जाएगा और अपनी प्रतिज्ञा को भूल कर सदोष - निर्दोष की जांच किए बिना ही उन उपकरणों को ले लेगा। इसलिए सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में साधक को यह आदेश देते हुए कहा है कि वह राग-द्वेष का छेदन करके वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण; आसन आदि के दोषों का परिज्ञान करे, यह देखे कि ये साधन गृहस्थ के यहां किस प्रयोजन से आए हैं। वह अपने उपभोग के लिए इन्हें लाया है या मेरी आवश्यकता को पूरा . करने के लिए, इसका सम्यक्तया परीक्षण करे। परीक्षण के बाद यदि वे साधन सदोष प्रतीत हों तो उनका परित्याग करके निर्दोष साधनों - उपकरणों की गवेषणा करे । इससे आहार- एषणा, वस्त्र - एषणा आदि का भी स्पष्ट निर्देष किया गया है।
‘उग्गहणं – अवग्रहणं' शब्द का अर्थ प्रत्येक पदार्थ को आज्ञा से ग्रहण करने का है। उसके 5 भेद किए गए हैं