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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध मूलम्-दुहओ छेत्ता नियाइ, वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुच्छणं उग्गहणं च कडासणं एएस चेव जाणिज्जा॥90॥
छाया-द्विधा छित्त्वा नियाति वस्त्रं, पतद्ग्रह, कम्बलं पादपुंछनम्, अवग्रहणं च कटासनमेतेषु चैव जानीयात्। ___पदार्थ-दुहओ-राग और द्वेष से जो प्रतिज्ञा की हो उसका। छेत्ता-छेदन करके। नियाइ-जो मोक्ष पथ पर गतिशील हैं, उन्हें क्या करना चाहिए? वत्थं-वस्त्र। पडिग्गह-पात्र । कम्बलं-कम्बल। पायपुच्छणं-रजोहरण। च-और। उग्गहणंउपाश्रय आदि स्थान। कडासण-कटासन-संस्तारक और आसन बिस्तर आदि। च-समुच्चय अर्थ में। एव-अवधारणा अर्थ में। एएसु-जो गृहस्थ साधु के लिए आरम्भ करके इन उपकरणों को देते हैं, उसे। जाणिज्जा-भली-भांति जाने अर्थात् सदोष उपकरणों का त्याग करके निर्दोष उपकरणों को ही स्वीकार करे। ___ मूलार्थ-राग-द्वेष युक्त की गई प्रतिज्ञा का छेदन करने वाला, मोक्ष-मार्ग पर गतिशील साधक वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, उपाश्रयादि स्थान और आसन आदि पदार्थों के लिए जो गृहस्थ आरम्भ करते हैं, उसे भली-भांति जाने और उसमें सदोष का त्याग करके, निर्दोष पदार्थों को स्वीकार करे। हिन्दी-विवेचन ___ पूर्व सूत्र में जो अप्रतिज्ञा अर्थात् प्रतिज्ञा नहीं करने की बात कही गई है, उसका अभिप्राय प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट कर दिया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सूत्रकार ने पूर्व सूत्र में प्रतिज्ञा मात्र का निषेध नहीं किया है। उनका अभिप्राय राग-द्वेष युक्त प्रतिज्ञा का परित्याग करने से है। यह बात प्रस्तुत सूत्र से स्पष्ट हो जाती है कि मुनि राग-द्वेष युक्त प्रतिज्ञा का छेदन करके वस्त्र-पात्र आदि निर्दोष पदार्थों को ग्रहण करे।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि आहार, वस्त्र, पात्र आदि ग्रहण करने के लिए किए जाने वाले अभिग्रहों का त्याग करने को नहीं कहा है, परन्तु यह कहा गया है कि राग-द्वेष या निदानपूर्वक कोई अभिग्रह-प्रतिज्ञा न करे। क्योंकि राग-द्वेष से परिणामों में विशुद्धता नहीं रहती और परिणामों एवं विचारों का दूषित प्रवाह उस प्रतिज्ञा को स्पर्श किए बिना नहीं रहता है। अतः दोष युक्त भावों से की गई प्रतिज्ञा में भी अनेक