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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 5
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· निर्दोष संयम का परिपालन करने वाला साधु कैसा होता है, इसका वर्णन 'से भिक्खू कालन्ने....' आदि पदों में किया है। वह काल-समय का, आत्म-शक्ति का'; आहार आदि के परिमाण का परिज्ञाता होता है और 'खेयन्ने' अर्थात् खेदज्ञ होता है। खेद अभ्यास को भी कहते हैं । अतः अभ्यास के द्वारा पदार्थों का ज्ञाता, संसार पर्यटन एवं क्षेत्र को भी खेद कहते हैं। इस दृष्टि से खेदज्ञ का अर्थ होगा-संसार परिभ्रमण के लिए किए जाने वाले श्रम को एवं क्षेत्र के स्वरूप को जानने वाला। 'खणयन्ने' अर्थात् भिक्षा का एवं अन्य संयम क्रियाओं के समय को जानने वाला। प्रत्येक व्यक्ति के आंतरिक भावों का परिज्ञाता और स्व-परमत का विशिष्ट ज्ञाता होना चाहिए। जो साधु स्व-परमत का ज्ञाता नहीं होगा, वह अन्य मतावलम्बी व्यक्तियों द्वारा या किसी भी व्यक्ति द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर भली-भांति नहीं दे सकेगा।
'अपडिन्ने' का अर्थ है-कषाय के वश किसी भी प्रकार की प्रतिज्ञा न करने वाला। क्योंकि कषायों के वेग एवं आवेश के समय विवेक दब जाता है, अतः ऐसी अविवेक की स्थिति में की गई प्रतिज्ञा स्व और पर के लिए अहितकर भी हो सकती है। जैसे टीका में उल्लेख आता है कि स्कन्धाचार्य ने अपने शिष्यों को यन्त्र में पीलते हुए देखकर क्रोध के आवेश में नगर, राजा एवं पुरोहित आदि का विनाश करने की प्रतिज्ञा की थी। अभिमान के वेग में बाहुबली ने अपने से पहले दीक्षित हुए लघु भ्राताओं को वन्दन नहीं करने की प्रतिज्ञा की थी। इस प्रकार माया एवं लोभ के वश स्वर्गादि की प्राप्ति के लिए तप आदि साधना की प्रतिज्ञा करना, अर्थात् निदानपूर्वक तप करना। इस प्रकार की प्रतिज्ञाओं से आत्मा स्वयं पतन की ओर प्रवृत्त होता है। अतः संयमनिष्ठ मुनि को कषाय वश कोई प्रतिज्ञा नहीं करनी चाहिए। उसे विवेकपूर्वक संयम-साधना में प्रवृत्ति करनी चाहिए। ___प्रस्तुत सूत्र में प्रतिज्ञा का जो निषेध किया गया है, वह एक अपेक्षा विशेष से किया गया है न कि प्रतिज्ञा मात्र का ही। इसी बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते है
1. बालन्ने, पद में छन्द के कारण दीर्घता की गई है। 2. खेदः अभ्यासस्तेन जानाति खेदज्ञः।