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________________ 364 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध भला-बुरा भी कहने लगते हैं। इससे दोनों के जीवन में मनोमालिन्य बढ़ता है और उसकी वेदना में अभिवृद्धि होती है। अतः साधक को वेदना के समय किसी को दोष न देकर यह सोचना चाहिए कि यह वेदना मेरे अशुभ कर्म के उदय का ही फल है और इसे मुझे ही भोगना है। क्योंकि कृत कर्म को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता, मुक्ति नहीं मिलती। और इस वेदना से मुझे मेरी आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं बचा सकता है। परिवार के व्यक्ति न तो इससे मेरी रक्षा ही कर सकते हैं और न मुझे शरण ही दे सकते हैं और मैं भी उनकी रक्षा करने या उन्हें शरण देने में समर्थ नहीं हूँ। ऐसे समय में धैर्य, सहिष्णुता एवं समभाव ही सच्चे सहायक हैं। उन्हीं के सहयोग से वेदना की अनुभूति कम हो सकती है। ऐसा सोचकर साधक को वेदना के समय भी शांति एवं धैर्य रखना चाहिए। ___ परन्तु जिन व्यक्तियों में ज्ञान की कमी है, वे उस समय अधीर हो उठते हैं। वैषयिक सुख को भोगने में समर्थ न होने पर भी रात-दिन उसके चिन्तन में ही संलग्न रहते हैं। और उसे संप्राप्त करने के लिए अनेक प्रयत्न करते हैं। भोगोपभोग के साधनों की प्राप्ति के लिए धन-वैभव की आवश्यकता होती है। उसके बिना साधनों की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए भोगासक्त व्यक्ति धन को बटोरने में कृत-अकृत सभी कार्य कर गुज़रता है; फिर भी वह धन उसका सहायक नहीं बनता। उसका संरक्षण नहीं कर पाता। इसी सत्य को अभिव्यक्त करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-तिविहेण जावि से तत्थ मत्ता भवइअप्पा वा बहुगा वा से तत्थ गड्डिए चिट्ठइ, भोयणाए, तओ से एगया विपरिसिट्ठ संभूयं 1. कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि। -उत्तराध्ययन सूत्र 2. भोगाः-शब्दरूपरसगन्धस्पर्शविषयाऽभिलाषास्तानेवानुशोचयन्ति-कथमस्यामप्यवस्थायां वयं भोगान् भुक्ष्महे? एवंभूता वाऽस्माकंदशाऽभूद् येन मनोज्ञा अपि विषया उपनता नोपभोगायेति। ईदृक्षश्चाध्यवसायः केषीचिदेव भवतीत्याह-'इहमेगेसिं' 'इह' संसारे एकेषामनवगत्-विषयविपाकानां ब्रह्मदत्तादीनां मानवानामेवंभूतोऽध्यवसायो भवति, न सर्वेषां, सनत्कुमारादिना व्यमिचारात्।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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