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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 4
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लगते हैं। वा-अथवा। सो-वह रोगी। ते नियगे-उन सम्बन्धियों की। पच्छा-पीछे। परिवइज्जा-निन्दा करता है। कभी निन्दा न भी करे तब भी। ते-वे सम्बन्धी। तव-तेरी। ताणाए-रक्षा करने में। वा-अथवा तुझे। सरणाए-शरण देने में। नालं-समर्थ नहीं हैं, तथा। तुमंपि-तू भी । तेसिं-उनकी। ताणाए-रक्षा करने में। वा-अथवा। सरणाए-शरण देने में। नालं-समर्थ नहीं है, यह। जाणित्तुं-जानकर कि। दुक्खं-दुख और। सायं-सुख को। पत्तेयं-प्रत्येक प्राणी अपने कृत कर्मानुसार स्वयं भोगता है, अतः रोगोत्पत्ति के समय मन में संकल्प-विकल्प एवं दुर्भावना नहीं लानी चाहिए। परन्तु कुछ प्राणी। भोगामेव-भोगों का ही । अणुसोयंति-चिन्तन करते रहते हैं। इहमेगेसिं माणवाणं-इस संसार में कुछ ही मनुष्यों को भोग विषयक अध्यवसाय होता है।
मूलार्थ-आसक्तिपूर्वक काम-भोगों के आसेवन से अथवा असाता वेदनीय कर्म के उदय से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसा रोगी जिनके साथ रहता है, वे सम्बन्धी उसका तिरस्कार एवं उसकी निन्दा करने लगते हैं और वह भी पीछे से उनकी निंदा करता है। यदि कभी ऐसी स्थिति न भी आए, तब भी वे
सम्बन्धी उसकी रक्षा करने एवं उसे शरण देने में समर्थ नहीं हैं, और न ही उनका रक्षण करने एवं उन्हें शरण देने में वह समर्थ है।।
यह जान कर कि प्रत्येक प्राणी अपने शुभाशुभ कृतकर्म के अनुसार सुख-दुःख का संवेदन करता है। अतः रोग आदि कष्ट के समय व्यक्ति को अधीर एवं व्याकुल नहीं होना चाहिए, कुछ प्राणी ऐसे भी हैं जो उस वेदना से बचने के लिए अनवरत भोगों का चिंतन करते रहते हैं, रात-दिन विषय-वासना में ही संलग्न रहते हैं। हिन्दी-विवेचन - संसार में कुछ व्यक्ति ऐसे भी हैं कि जो दिन-रात विषय-भोगों में निमज्जित रहते हैं। वैषेयिक जीवन को ही सुखमय मानते हैं। अतः अत्यधिक भोगों के कारण या असाता-वेदनीय कर्मोदय से उन्हें रोग उत्पन्न हो जाता है। और उस भयंकर व्याधि के समय यथोचित सेवा-शुश्रूषा की व्यवस्था न होने से रोगी एवं परिवार के व्यक्तियों में परस्पर कटुता भी उत्पन्न हो जाती है। और फलस्वरूप एक-दूसरे को