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द्वितीय अध्ययन : लोकविजय
· चतुर्थ उद्देशक
तृतीय उद्देशक में विषय-भोगों में आसक्त नहीं रहने का उपदेश दिया है। और चौथे उद्देशक के प्रारम्भ में भोगासक्त जीवों की जो दुर्दशा होती है, उसका सजीव चित्र चित्रित करके बताया है कि उन जीवों की भोगेच्छा, विषयाभिलाषा एवं ऐश्वर्य की तृष्णा तो पूरी होगी या न होगी, अर्थात् उसकी पूर्ति होने में असंदिग्धता नहीं हैं। कभी आंशिक रूप से हो भी सकती है और कभी नहीं भी हो सकती है। अतः उसकी पूर्ति हो या न हो, परन्तु इतना तो निश्चित है कि भोगों की आशा, तृष्णा, आकांक्षा एवं अभिलाषा के शल्य की चुभन तो उसे अनवरत पीड़ित करती ही रहेगी। इसी बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं___ मूलम्-तओ से एगया रोग समुप्पाया समुप्पज्जंति, जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते एव णं एगया नियया पुव्विं परिवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवइज्जा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा, जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, भोगामेवा अणुसोयंति इहमेगेसिं माणवाणं ॥83॥ ___ छाया-ततः तस्य एकदा रोगसमुत्पादाः समुत्पद्यन्ते यैः वा सार्द्धं संवसति त एव एकदा निजकाः पूर्वं परिवदन्ति स वा तान् निजकान् पश्चात् परिवदेत् नालं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा, ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातं भोगानेव अनुशोचन्ति इहैकेषां मानवानाम्। __ पदार्थ-तओ-उस काम-भोग के सेवन से। से-उस कामी व्यक्ति को। एगया-किसी समय असाता वेदनीय कर्म के उदय से। रोग समुप्पाया-रोग उत्पन्न हो जाते हैं। जेहिं वा सद्धिं-जिनके साथ। संवसइ-रहता है। ते एव णं-वे ही। नियया-स्वजन ने ही। पुट्-िपहले। परिवयंति-उसकी निन्दा करने