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अध्यात्मसार:3
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काल-मृत्यु के आने का कोई समय नियत नहीं है। न जाने कब आ जाए। सब प्राणियों को जीवन प्रिय है, सभी सुख की अभिलाषा रखते हैं, और दुःख सबको प्रतिकूल है, सभी को वध अप्रिय और जीवन प्रिय है, सभी जीवन की कामना करने वाले हैं, सब जीवों को जीवन प्रिय है, असंयमी जीवन के आश्रित होकर द्विपद-मनुष्य, दास-दासी आदि और चतुष्पद-पशु-गो-महिषी और अश्व आदि को उन-उन कार्यों में नियुक्तं करके और इस प्रकार धन का संचय करके उस एकत्रित धन की अल्प अथवा अधिक मात्रा के उपभोग करने में प्राणी मन-वचन और काया से आसक्त रहता है। किसी समय लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से बहुत-सा धन भोगने के पश्चात् भी उसके पास शेष रह जाता है। किसी समय अन्तराय कर्म के उदय से अथवा भाग्य के क्षय हो जाने पर उस संचित धन को उसके सगे-सम्बन्धी आपस में बांट लेते हैं, चोर चुरा लेते हैं, राजा लूट लेता है, व्यापार अथवा अन्य प्रकार से उसका विनाश हो जाता है एवं घर में आग लगने से वह दग्ध हो जाता है। इस प्रकार वह अज्ञानी जीव दूसरों के लिए अत्यन्त क्रूर कर्मों को करता हुआ उस दुःख से मूढ़ होकर विकलता को प्राप्त हो जाता है। तीर्थंकर देव ने ही यह प्रतिपादन किया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र से रहित ये सब अन्यतीर्थी लोग, संसार समुद्र को न तो तर ही पाये हैं और न तरने में समर्थ ही हैं तथा ये सब न तो तीर को-किनारे को प्राप्त हुए हैं और न प्राप्त करने में समर्थ ही हैं। अतएव ये सब पार नहीं पहुंचे हैं और पार होने में समर्थ भी नहीं हैं। श्रुतज्ञान को धारण करने पर भी अखेदज्ञ, अकुशल जीव संयम स्थान में स्थित नहीं रहता है, अपितु मिथ्या उपदेशों को प्राप्त करके असंयम स्थान में स्थित रहता है। ____ धुवचारिणो-जो ध्रुव में विश्वास करता है जिसकी श्रद्धा ध्रुव के प्रति है, जो ध्रुव के प्रति गति करता है और जिसकी रुचि ध्रुव में है।
- ध्रुव-स्थिरता, स्थैर्य-समिति एवं गुप्ति ध्रुवता की ओर ले जाती है और इन्द्रियों के विषय अध्रुव की ओर ले जाते हैं।
मुनि की साधना क्या है? कैसे ध्रुवता आये, मुनि स्थैर्य का साधक है।
धर्म-ध्रुव का दूसरा अर्थ होता है धर्म, स्वभाव जो अनादि अनन्त है। यहाँ पर धर्म अर्थात् केवली की वाणी भी है और धर्म अर्थात् स्वभाव भी है। उस पर जो