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________________ 356 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध मिल भी सकता है और नहीं भी मिल सकता। लेकिन असंयमी व्यक्ति को कभी भी यश नहीं मिल सकता। असंयमी को केवल कीर्ति ही मिलती है। वह भी पूर्व पुण्य अथवा वर्तमान में की हुई दान-सेवा इत्यादि से। इस सारे सूत्र का मूल है देहासक्ति, उससे इन्द्रियासक्ति, अर्थात देहासक्ति से इन्द्रियासक्ति । इन्द्रियासक्ति से इन्द्रियों के विषयों के प्राप्त होने के साधनों से आसक्ति और उस आसक्ति से व्यक्ति विपरिणाम और मूढ़ता को प्राप्त करता है और फिर इसी मूढ़ता में मृत्यु को प्राप्त कर नीच गति में जन्म लेता है। कभी-कभी पूर्व पुण्य के आकस्मिक उदय से उसे मृत्यु से पहले जागरण आ जाता है और मूढ़ता टूटती है तो सदगति भी हो सकती है। मूलम् : इणमेव नावकंखंति, जे जणा धुवचारिणो। जाईमरणं परिन्नाय, चरे संकमणे दढे। नत्थि कालस्स णागमो, सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा, सव्वेसिं जीवियं पियं, तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिजुंजिया णं संसिंचियाणं तिविहेण जाऽवि से तत्थ मत्ता भवइ अप्पा वा बहुया वा, से तत्थ गड्ढिए चिट्ठइ, भोअणाए। तओ से एगया विविहं परिसिटुं संभूयं महोवगरणं भवइ तंपि से एगया दायाया वा विभयंति अदत्तहारो वा से अवहरंति रायाणो वा से विलुम्पंति, नस्सइ वा से विणस्सइ वा से, अगारदाहेण वा से डंज्झइ। इय से परस्सट्ठाए कूराई कम्माइं बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण संमूढे विप्परियासमुवेइ, मुणिणा हु एवं पवेइयं, अणोहंतरा एए, नो य ओहं तरित्तए, अतीरंगमा एए, नो य तीरं गमित्तए, अपारंगमा एए, नो य पारं गमितए, आयाणिज्जं च आयाय तंमि ठाणे न चिट्ठइ, वितहं पप्पऽखेयन्ने तंमि ठाणमि चिट्ठइ॥ 2/3/81 मूलार्थ : हे शिष्य! जो मोक्ष के साधक हैं, वे इस असंयमी जीवन की इच्छा नहीं रखते हैं। अतः तुम जन्म-मरण के स्वरूप को जानकर संयम मार्ग में दृढ़ होकर चलो।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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