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अध्यात्मसार: 3
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यह रुचि जागृत होती है, जब सम्यक् दर्शन जागृत होता है। सम्यक् दर्शन के द्वारा,.अर्थात् देव-गुरु-धर्म की शरण में जाने पर अपने आप एक दिन स्वरूप बोध होकर 'निश्चय सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर' यह रुचि जागती है। कहते हैं एक बार सम्यक् दर्शन का स्पर्श होने पर व्यक्ति का मोक्ष जाना निश्चित है, क्यों? क्योंकि सम्यक् दर्शन होने पर जो स्वाभाविक रुचि जागी, वह रुचि अपने आप रास्ता ढूँढ़ेगी। उपादान तैयार होने पर निमित्त मिलता है। अपनी उस रुचि के कारण कितने ही भोग-बन्धनों में रहते हुए भी, वह निरन्तर यह खोजता रहेगा कि मैं कैसे बन्धन से बाहर आऊँ। उसकी सही खोज उसे चारित्र तक ले जाएगी। यह सब कुछ समिति और गुप्ति की साधना से होता है। समिति-गुप्ति की साधना के अभाव में व्यक्ति अज्ञान में ही रहता है और जीता है। इस अज्ञानवश इतना पुरुषार्थ करते हुए भी वह अतृप्त ही रहता है। इन्द्रियों के सुख-दुःख में जीते हुए, वह सदा परितप्त रहता है।
दूसरा वह अपयश को प्राप्त करता है। अपयश का अर्थ अपमान नहीं है। हो सकता है असयंमी व्यक्ति को अधिक सम्मान मिले। अपमान तो साधु का भी हो सकता है और असंयमी का भी सम्मान हो सकता है। हो सकता है कि पूर्व अर्जित पुण्य के उदय से, असंयमी व्यक्ति के सम्मान में वृद्धि हो, लेकिन वह यश नहीं है।
यश और कीर्ति
सम्यक् पुरुषार्थ एवं पराक्रम के द्वारा व्यक्ति के नाम में जो संवर्धन होता है, उसे यश कहते हैं। जैसे-चक्रवर्ती और तीर्थंकर में यह अन्तर है। चक्रवर्ती कीर्ति को प्राप्त करते हैं, तीर्थंकर यश को।
कीर्ति : अपने पुरुषार्थ एवं पूर्व अर्जित पुण्य के माध्यम से पद-प्रतिष्ठा, भोग-उपभोग के साधनों को एकत्र कर परिग्रह के क्षेत्र में उच्चता, धन के माध्यम से, पद के माध्यम से, अपने नाम में संवर्धन करना कीर्ति का उपार्जन है। .. यश : इन्द्रियों का निग्रह करने हेतु जो पुरुषार्थ किया जाता है और उस पुरुषार्थ से जो आन्तरिक उच्चता प्राप्त होती है, उस आन्तरिक उच्चता के प्रति लोगों की श्रद्धा और उनका सम्मान प्राप्त करना यश है। _ 'यह सारे सूत्र का मूल है'। जरूरी नहीं है कि संयमी व्यक्ति को यश मिले ही,