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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
संयम का मूल आधार
बाह्य आचार भी महत्त्वपूर्ण है, लेकिन आन्तरिक दृष्टिकोण संयम का मूल आधार है। यदि आन्तरिक दृष्टिकोण देह के सुख की पूर्ति का है, तब बाह्य आचार होते हुए भी असंयम है। अगर आन्तरिक दृष्टिकोण देह के पार जाने का है, तब वह संयम के अभिमुख है। यदि दृष्टिकोण देह के पार जाने का है, तब भोग-उपभोग के मध्य रहते हुए भी वह यह सोचता है कि मुझे इनसे मुक्ति कैसे मिले। अतः सम्यक् दृष्टि का लक्षण है, रुचि। निश्चय में-सम्यक् दर्शन मिलने पर संयम में रुचि जागती है। व्यवहार में अरिहंत, सुसाधु एवं सद्धर्म पर श्रद्धा रखने को, उनकी शरण में जाने को सम्यक् दर्शन कहते हैं। इस व्यवहार सम्यक्त्व से इनकी शरण में जाने से आन्तरिक दृष्टिकोण में परिवर्तन आता है। यहाँ पर देहासक्ति के अन्तर्गत धन, पद, प्रतिष्ठा, परिवार इन सबके प्रति जो आसक्ति है, ये सब समाविष्ट हैं। तो जिसे पद-प्रतिष्ठा का मोह है, वह भी असंयमी है, क्योंकि पद प्रतिष्ठा का मोह भी देहासक्ति का ही एक रूप है, और जिसके भीतर देहासक्ति की पूर्णता का दृष्टिकोण विद्यमान है, उसका पुरुषार्थ भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में एतदर्थ आसक्ति की पूर्ति के साधनों की ओर ही होगा। .
देह सुख का अर्थ केवल भोजन एवं काम सुख ही नहीं है, क्योंकि धन, पद, प्रतिष्ठा, परिवार सब कुछ इसी से जुड़ा हुआ है। जब भी कोई आपका नाम लेकर आपको ढूँढ़ने के लिए आएगा, तब वह किसे ढूँढेगा? आपकी इस देह को ही ढूँढेगा, क्योंकि यह नाम इत्यादि आपकी देह को दी हुई एक संज्ञा है। इस प्रकार पद-प्रतिष्ठा को पाने की आकांक्षा ही वस्तुतः असंयम का आधार है। ऐसा व्यक्ति हर समय देखता रहेगा कि मेरी पद-प्रतिष्ठा कैसे बढ़े। इसलिए साधु के लिए कहा गया, सभी प्रकार की आकांक्षाओं को छोड़ वीतरागी बने। वीतरागी बनने की आकांक्षा कोई आकांक्षा नहीं है, वरन् यह इन्द्रियों के पार जाने की एक स्वाभाविक रुचि है। यदि आज रुचि है तो कल पहुँचेगा ही। यह रुचि वैचारिक नहीं, अपितु सहज होनी चाहिए। जैसे, भोजन के लिए भूख लगती है। यह भूख लगना स्वाभाविक है। भूख सोच-विचार करके नहीं लगती है। इसी प्रकार जिसमें ऐसी सहज रुचि जागती है, वही साधक है। इस रुचि से आगे है, चारित्र।