SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 358 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध चलने वाला है, उसमें जो रमने वाला है, उस पर जो आचरण करने वाला है, वह ध्रुवचारी है। ___ जिसकी आस्था शाश्वत की है और जो पर्याय को नहीं, शुद्ध द्रव्य को देखता है। शुद्ध द्रव्य जो कल भी था, आज भी है, आगे भी रहेगा। संसार के सारे पदार्थ बदलते हैं, सभी उत्पाद, व्यय और ध्रुव से युक्त हैं। पर्याय सदा बदलती हैं, लेकिन मूल स्वभाव ध्रुव है। ध्रुवचारी उस मूल स्वभाव को देख लेता है। स्वभाव को देखने से उसके जीवन में जो व्यवहार आता है, आचरण आता है, वह ध्रुवाचार है। ऐसे तो मोक्ष को भी ध्रुव कहते हैं। अस्तित्व की अपेक्षा से देखें तो संसार में सब कुछ शाश्वत है। जैसे मोक्ष शाश्वत है, वैसे ही नरक, स्वर्ग सभी कुछ शाश्वत है। इनमें परिवर्तन हो सकता है, लेकिन ये नष्ट कभी नहीं होते। इतना अवश्य है कि मोक्ष गति में जाने के पश्चात् पुनः कोई लौटकर आता नहीं, इस अपेक्षा से मोक्ष को विशेष रूप से ध्रुव कह सकते हैं। __ हमारी साधना-अध्रुव से ध्रुव की ओर जाना, जैसे सारे सम्बन्ध जिसे हम सम्बन्ध कहते हैं वे अध्रुव हैं। लेकिन एक सम्बन्ध ध्रुव है वह है मैत्री। वस्तुतः मैत्री कोई सम्बन्ध नहीं है, वरन् सम्बन्धित होने का दृष्टिकोण है। जैसे कोई सम्बन्ध बनता है माता-पिता, भाई-बहिन इत्यादि ये सारे सम्बन्ध शरीर के हैं। व्यक्ति को स्वरूप बोध हो जाने पर सभी के साथ जो सम्बन्ध स्थापित होता है, जिस सम्बन्ध का निर्माण होता है, वह है मैत्री। स्वरूप बोध से जिस दृष्टिकोण का निर्माण होता है, वह है मैत्री। यह सम्बन्ध बताया नहीं गया, अपितु स्वरूप का बोध होने पर स्वयमेव मैत्री जागती है, तुल्यभाव का जागरण होता है, प्रत्येक में लगता है, वह मेरा ही स्वरूप है। नावकंखंति : ध्रुवचारी व्यक्ति, कांक्षा नहीं करता। ‘यह विशेष आकांक्षा की अपेक्षा सामान्य संकल्प-विकल्प हो सकता है, क्योंकि जब स्वभाव और ध्रुव को व्यक्ति जान ले तब कांक्षा कैसी? कांक्षा शाश्वत की नहीं होती, अशाश्वत् की होती है। जो था, है और रहेगा, उसकी क्या कांक्षा? कांक्षा उसकी हो सकती है, जो या तो अभी नहीं है अथवा अभी तो है पर आगे नहीं रहने वाला है, अर्थात् जो अशाश्वत है। इसलिए मोक्ष की कांक्षा नहीं होती, वरन् मोक्ष की रुचि होती है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy