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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध पैदा होता है। उसे जीने की तीव्र आकांक्षा रहती है। जीने की आकांक्षा किससे आती है? जीने की आकांक्षा का जन्म होता है इस देह के प्रति रही हुई आसक्ति के कारण, क्योंकि वह मानता है, अनुभव करता है कि मैं देह हूँ, वह देह के संयोग को जन्म
और देह के वियोग को मृत्यु मानता है। जितनी देहासक्ति होगी, उतनी ही समाधिमरण में जीने की जो कांक्षा है, उसका त्याग किया जाता है, जिससे कि देहासक्ति से व्यक्ति दूर हों, जीने की आकांक्षा तथा मरने की कांक्षा, दोनों ही देहासक्ति के भिन्न-भिन्न रूप हैं। देहासक्ति के छूटते ही ये दोनों आकांक्षाएं भी छूट जाती हैं।
संयम __ इन्द्रियनिग्रह के लिए जो पुरुषार्थ किया जाता है, वह संयम है और विषयों को जुटाने के लिए अथवा 'प्राप्त करने के लिए' जो पुरुषार्थ किया जाता है, वह असंयम है। ___ मूल बात तो मन की है। मन में यदि देह के प्रति आसक्ति रही तो नियम, उपनियमों का पालन करते हुए भी वह असंयम है, तभी वह दिखावा कर रहा है, क्योंकि देहासक्ति से दबा हुआ उसका मन सदा विषयों के प्रति दौड़ रहा है। अतः बाहर से नियम-उपनियम के द्वारा संयम का पालन करते हुए भी उसका पुरुषार्थ भीतर से इन्द्रियों की पूर्ति के लिए ही है, तब वह असंयमी है।
तप की विधि : अनशन का महत्त्व
देहासक्ति की मूल जड़ क्या है? देहासक्ति की मूल जड़ है आहार। इसलिए अनशन को महत्त्व दिया। व्यक्ति सब कुछ सहन कर सकता है, लेकिन भूख नहीं। तुम कितने ही सुन्दर साधन, वस्त्र, मकान कुछ भी दे दो, लेकिन बिना भोजन कुछ भी नहीं सुहाता, वह व्याकुल ही रहेगा। इस प्रकार देहासक्ति का मूल है आहार। आहार का अर्थ है आहार संज्ञा। वह शरीर की भूख को अपनी भूख मानता है। अनशन को इतना महत्त्व इसलिए दिया कि जिसके माध्यम से तुम यह देख सको कि यह भूख मेरी नहीं देह की है। अनशन वस्तुतः तुम्हारी देहासक्ति की परीक्षा है। . ____ जबर्दस्ती भूखा रहना अलग बात है। कोई बलवान है और भूखा रह रहा है, यह बात अलग है, क्योंकि केवल भूखा रहना ही सब कुछ नहीं है। देहासक्ति का टूटना