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________________ 351 अध्यात्मसार : 3 समिति और गुप्ति की साधना । इससे समस्त कर्मों के स्वरूप का बोध हो जाता है । एक बार ग्रह बोध हो जाए, तब फिर हर्ष या शोक नहीं सताता । मूल साधना गुप्ति की है, गुप्ति के साथ है समिति । यहाँ पर जाति और कुल की बात कही गयी है । खानदान सम्बन्धी जो महत्त्व पहले बताया गया, वही महत्त्व गोत्र का भी है। जब भी कोई साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ता है तो जैसे पूर्व में बताया गया है, उसका जाति और कुल उत्तम होना चाहिए। इसमें अपवाद भी हो सकता है । परन्तु साधारणतः यही नियम हैं । जाति एवं कुल अर्थात् मातृपक्ष एवं पितृपक्ष उच्च होना चाहिए । प्रमाद के पाँच भेद - मद्य, विषय, कषाय, निन्दा और विकथा है । मूलम् : से अबुज्झमाणे हओवहए जाईमरणं अणुपरियट्ठमाणे, जीवियं पुढो पियं इहमेगेसिं माणवाणं खित्तवत्थुममायमाणाणं, आरत्तं विरत्तं मणिकुण्डलं सह हिरण्णेण इत्थियाओ परिगिज्झ तत्थेव रत्ता, न इत्थ तवो वा दमो वा नियमो वा दिस्सइ, संपुण्णं बाले जीविउकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासमुवेइ॥ 2/3/80॥ मूलार्थ : कर्मस्वरूप के बोध से रहित अज्ञानी जीव शारीरिक-मानसिक दुःखों एवं अपयश को प्राप्त करता हुआ, जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण करता रहता है । खेत- मकान आदि में आसक्त मनुष्यों को असंयत जीवन ही प्रिय लगता है और रंगे हुए एवं विभिन्न रंग युक्त वस्त्रों, चन्द्रकान्त आदि मणियों, कुण्डल एवं स्वर्ण आदि के साथ स्त्रियों को प्राप्त करके, उनमें आसक्त होने वाले मनुष्य यह कहते हैं कि इस लोक में तपश्चर्या, इन्द्रिय एवं मनोनिग्रह एवं अहिंसा आदि नियमों का कोई फल दिखाई नहीं पड़ता । अत्यन्त अज्ञानी जीव, असंयमी जीवन के इच्छुक विषय-भोगों के लिए अत्यन्त प्रलाप करता हुआ, मूढ़ता को प्राप्त होकर विपरीत आचरण करता है । I यहाँ पर जो पहले का सूत्र है, इससे विपरीत अवस्था का चित्रण किया गया है समिति - गुप्त का पालन करता है, उसे कर्मों के स्वरूप का बोध हो जाता है । जो पालन नहीं करता है, वह अज्ञान में ही रह जाता है और उस अज्ञान से ही यह सब
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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