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करने का अधिकारी होता है। जिस साधु को आचारांग का बोध नहीं, उसे कोई पद नहीं दिया जा सकता। इससे आचारांग का गौरव स्वयं ही स्पष्ट हो जाता है। उसके लिए विशेष कहने की आवश्यकता नहीं है।
आचारांग सूत्र जितना सरल है, उतना ही गम्भीर है। छोटे-छोटे सूत्रों में इतने गहन भाव समाविष्ट कर दिए हैं कि मानों गागर में सागर भर दिया हो। अतः उसके अर्थ एवं भावों को स्पष्ट करने के लिए आचार्यों ने इस पर विशद टीकाएं लिखी हैं। सर्व प्रथम आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने इस पर नियुक्ति लिखी थी। इसके पश्चात् सिद्धसेनाचार्य ने गन्धहस्ति भाष्य नामक टीका की रचना की। विद्वानों का अभिमत है कि यह टीका बहुत विशाल एवं आध्यात्मिक अर्थ को प्रकट करने वाली थी। प्रस्तुत आगम के टीकाकार श्री शीलांकाचार्य ने अपनी टीका उसी के आधार पर लिखी है। श्री गन्धहस्ति टीका की गहनता को स्पष्ट करते हुए भी शीलांकाचार्य आचारांग टीका की उत्थानिका में लिखते हैं कि गन्धहस्ति कृत आचारांग सूत्र के शस्त्र परिज्ञा अध्ययन का वर्णन अत्यन्त गहन-गम्भीर है। जिज्ञासु सज्जनों को उसका सुगमता से बोध हो सके, इसके लिए मैं अपनी टीका में उसमें से कुछ सार ग्रहण करता हूं।
जब शीलांकाचार्य जैसे प्रौढ़ विद्वान् गन्धहस्ति कृत टीका की महत्ता को स्वीकार करते हैं, तो उसकी गहनता एवं विशिष्टता को मानने में किसी भी प्रकार के सन्देह को अवकाश नहीं रह जाता है। परन्तु हमारे दुर्भाग्य से वह टीका आज उपलब्ध नहीं है, उसका नाम मात्र ही शेष रह गया है।
__ अतः विचारशील पाठकों से मेरा नम्र निवेदन है कि वे आचारांग के महत्त्व को समझने एवं उसके गम्भीर विषय पर तटस्थ मनोवृत्ति से चिन्तन-मनन करने का प्रत्यन करें। और उसके स्थूल शब्दार्थ में ही न उलझकर, उसके आध्यात्मिक एवं वास्तविक अर्थ को समझने का पुरुषार्थ करें। गन्धहस्ति टीका में प्रायः आध्यात्मिक अर्थ को ही महत्त्व दिया गया था और आज भी जो टीकाएं उपलब्ध हैं, उनमें भी कई स्थलों पर आध्यात्मिक अर्थ करने की शैली अपनाई गई है। मैंने भी प्रस्तुत विवेचन
1. शस्त्र-परिज्ञा विवरणमति बहुगहनञ्च गन्धहस्तिकृतम् । तस्मात् सुख बोधार्थ गृह्णाम्यहमंजसासारम्।
-आचारांग टीका (श्री शीलांकाचार्य)