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आचार्य, गणावच्छेदकादि का पद नहीं देना चाहिए। प्रस्तुत आगम में आगे चलकर कहा है कि स्थविर को भी सदा आचारांग का स्वाध्याय करना चाहिए। स्थविर के लिए अनेक सुविधाएं दी गई हैं, परन्तु उसके लिए भी आचारांग का स्वाध्याय अनिवार्य बताया है। आगम में कहा है कि जब कोई स्थविर रोग के कारण आचारांग को भूल गया हो या भूल रहा हो तो उसका कर्त्तव्य है कि वह बैठे-बैठे या लेटकर या अधिक अस्वस्थ हो तो करवट बदलते हुए आचारांग का स्वाध्याय करें। कहने का तात्पर्य यह है कि वह चाहे जिस स्थिति में क्यों न हो, आचारांग का स्वाध्याय अवश्य करें। क्योंकि साधना का मूल आचार ही है। ___ प्रस्तुत आगम में एक जगह लिखा है कि यदि तीन वर्ष की पर्याय (दीक्षा) वाला साधु आचार कुशल है, संयम-निष्ठ है और प्रवचन में पारंगत है और कम-से-कम आचारांग का परिज्ञाता है, तो उसे उपाध्याय पद से अलंकृत किया जा सकता है। ___इसके अतिरिक्त साधु-साध्वी के लिए यह आवश्यक है कि वह सर्वप्रथम आचारांग का अध्ययन करे। निशीथ सूत्र में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि जो साधु आचारांग का अध्ययन किए बिना ही अन्य आगमों का अनुशीलन-परिशीलन करता है, तो उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
उक्त पाठों से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रुत-साहित्य में आचारांग सूत्र का कितना महत्त्व है। आचारांग सूत्र का परिज्ञाता मुनि ही आचार्य आदि पद को प्राप्त
1. व्यवहार सूत्र, 4/16 2. व्यवहार सूत्र, 5/18 3. व्यवहार सूत्र; 3/3 4. जे भिक्खु णव बंभचेराइं अवाएत्ता उवरिमसुयं वाएइ वायंतं वा साइज्जइ।
-निशीथ सूत्र, 19, 20 5. प्रस्तुत पाठों में प्रयुक्त 'आयारप्पकप्पे' का तात्पर्य आचार प्रकल्प अर्थात् निशीथ सहित
आचारांग सूत्र से है। निशीथ आचारांग का एक अध्ययन है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध की पांच चूलाओं में पांचवी चूला का नाम आयारप्पकप्पे या निशीथ है और यह आचारांग संबद्ध थी। परन्तु बाद में यह आचारांग से पृथक् कर दी गई और इसे निशीथ सूत्र के नाम से छेद सूत्रों में स्थान दे दिया गया। अतः यहाँ आचारांग के अध्ययन का अर्थ है-आचारप्रकल्प या निशीथ नामक अध्ययन सहित पूरे आचारांग का परिज्ञान करना।