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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध भी सत्ता एवं मूल गुणों के विकास की दृष्टि से हम किसी को वन्दन करते हैं तो यह हमारी प्रमोद भावना है। ऐसे तो सत्ता रूप से सभी में शुद्धता है, लेकिन प्रमोद रूपी भावना से धीरे-धीरे यह व्यवहार बन गया कि रत्नाधिक को वन्दन करना, लेकिन इसे ही अन्तिम नहीं मान लेना। किसी के प्रति प्रमोद भावना होना उचित है, लेकिन किसी के प्रति भी हीन भावना नहीं रखना। यह जो व्यवहार बनाया वह संघ की व्यवस्था के लिए है, लेकिन उसका मूल है प्रमोद भावना।
यह व्यवहार आवश्यक है, व्यवस्था और अनुशासन के लिए; अन्यथा अव्यवस्था हो जाएगी। जैसे समाज में यह व्यवहार बन गया है कि पुत्र माता-पिता को वन्दन करना। आवश्यक नहीं है कि माता-पिता उच्च गुणों से युक्त ही हों। कई बार पुत्र अधिक तेजस्वी होता है, फिर भी पुत्र माता-पिता को प्रणाम करता है, यही समाज की व्यवस्था है। ऐसे ही यह संघ की व्यवस्था है कि रत्नाधिक को वन्दन करना। ऐसे तो किसका दर्शन अधिक शुद्ध है, किसका चारित्र अधिक निर्मल है, यह हम नहीं जान सकते; फिर भी समय की अपेक्षा जो बड़ा हो, उसे वन्दन करना। लेकिन इसे जड़ता से नहीं लेना। कभी-कभी अपनों से छोटों में भी गुणों की अधिकता हो सकती है। अतः किसी को भी हीन नहीं समझना, अपितु वन्दन करें या न करें, लेकिन सभी के प्रति प्रमोदभाव रखना। ____ दूसरी बात मूल रूप से वन्दना हम सभी को कर सकते हैं, क्योंकि सत्ता रूप से न कोई ऊँचा है और न कोई नीचा। यदि तुमने प्रणाम किया ‘अपने से किसी छोटे व्यक्ति को' तो पाप नहीं लगता। यहाँ तक कि गृहस्थ को भी वन्दन करने से पाप नहीं लगता, क्योंकि वन्दन सभी को कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए आपके पास गुणों की पहचान होनी आवश्यक है, क्योंकि वन्दन एक प्रकार से उस व्यक्ति में रहे हुए गुणों की अनुमोदना है, जैसे किसी तपस्वी को आप वन्दन करते हैं, प्रमोदभाव से उसके तप को देखकर तब यह वन्दन उसके तपस्वी गुण और उसके पुरुषार्थ की अनुमोदना है। मुझमें भी ऐसा पुरुषार्थ जागे उस गुण का तथारूप विकास हो, लेकिन जब आप सर्व-साधारण जन के समक्ष किसी गृहस्थ को वन्दन करते हैं, तब साधारण लोग उसे आपका एक आदर्श समझ लेते हैं। सभी लोग यह नहीं देख पाते कि आप क्यों झक रहे हैं। हो सकता है कि आपको उनमें कोई विशेष गुण दिखाई दिया हो और आपने प्रणाम किया, लेकिन साधारण व्यक्ति वह उस विशेष गुण को देख नहीं