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अध्यात्मसार : 3
मूलम् : से असई उच्चागोए असउं नीआगोए, नो हीणे नो अइरित्ते, नोऽपीहए, इय संखाय को गोयावाई, को माणावाई कंसि वा एगे गिज्झे तम्हा पंडिए नो हरिसे नो कुप्पे, भूएहि जाण पडिलेह सायं॥ 2/3/78
मूलार्थ : यह जीव अनेक बार उच्च गोत्र में जन्म ले चुका है और अनेक बार नीच गोत्र में । इसमें किसी प्रकार की विशेषता या हीनता नहीं है, क्योंकि दोनों अवस्थाओं में भवभ्रमण और कर्मवर्गणा समान हैं। ऐसा जानकर उच्च गोत्र से अस्मिता और नीच गोत्र से दीनता का भाव नहीं लाना चाहिए और किसी प्रकार के मद के स्थान की अभिलाषा भी नहीं करनी चाहिए। अनेकों बार उच्च गोत्र में जन्म लिया जा चुका है, ऐसा जानकर अपने गोत्र का कौन मान करेगा? कौन अभिमानी बनेगा? और किस बात में आसक्त होगा ?
पंडित पुरुष उक्त सत्य समझता है, इसलिए वह उच्च गोत्र की प्राप्ति से हर्षित नहीं होता और नीच गोत्र की प्राप्ति होने पर कुपित नहीं होने पाता, अर्थात् सदा समभावी रहता है। पंडित पुरुष यह भी समझता है कि प्रत्येक प्राणी को सुख प्रिय है।
जीव का अज्ञान
व्यक्ति का अज्ञान क्या है ? जो दुःख संवर्धन का रास्ता है, उसे वह दुःखमुक्ति का रास्ता मानता है। जैसे इससे पूर्व आपने देखा जो बल को क्षीण करने वाले कारण हैं, उन्हें वह बल संवर्धन के उपाय समझता है, ऐसा ही अज्ञान मान के सम्बन्ध में भी
समझना ।
आत्मा का मूल स्वभाव
मूलतः आत्मा का स्वभाव क्या है ? समत्व आत्मा का स्वभाव है । यह समत्व इस दृष्टि से भी है कि रूप में सभी समान हैं । न कोई हीन है, न कोई उच्च है । फिर