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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 3
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वैदिक परंपरा में गोत्र जन्मगत माना गया है। ब्राह्मणों ने अपने आपको सर्वश्रेष्ठ घोषित करके वर्णभेद की एक दीवार खड़ी कर दी। साधना के सारे अधिकार उन्होंने अपने पास रखे; यहां तक कि शूद्र कुल में उत्पन्न व्यक्ति को वेद पढ़ने एवं सुनने का भी अधिकार नहीं दिया गया। व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में निम्न श्रेणी के व्यक्तियों का शोषण किया गया। उनके अधिकारों का अपहरण करके उन्हें मानवीय हितों से भी वंचित कर दिया। उस समय भगवान महावीर ने जन्मगत श्रेष्ठता एवं हीनता की असत्य एवं अमानवीय मान्यता का विरोध किया और इसके लिए उन्हें उस युग के एक बहुत बड़ी जातीय शक्ति का सामना भी करना पड़ा। परन्तु यह सत्य है कि उस युग में महावीर के चिन्तन ने वैदिक परंपरा की नींव को एक प्रकार से हिला दिया और उन्हें भी अपनी रूढ़ मान्यता में कुछ परिवर्तन करना पड़ा। इतना तो मानना ही होगा कि भगवान महावीर के चिन्तन ने आज के विचारकों को काफी प्रभावित किया है और वे इस बात से सहमत हैं कि आत्मविकास के लिए उच्च या नीच कुल बाधक नहीं है। निम्नकुल में उत्पन्न व्यक्ति भी साधना के पथ पर गतिशील हो सकता है। .
पाठभेद
कुछ प्रतियों में 'पंडिय-पंडितः' शब्द का उल्लेख मिलता है। और नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-“एगमेगे खलु जीवे अईअद्धाए असई उच्चागोए, असई नीआगोए कंडंगठ्ठयाए नो हीणो नो अइरित्ते।" इस प्रकार उक्त पाठभेद से विभिन्न वाचनाओं की सिद्धि होती है, जोकि विद्वानों के अन्वेषण की अपेक्षा रखती है। . प्रस्तुत सूत्र में जाति एवं कुलमद के त्याग का उपदेश दिया गया। परन्तु इसके साथ अन्य 6 मद भी त्यागने योग्य हैं, इस बात को भी समझ लेना चाहिए। इस प्रकार साधक को अभिमान का पूर्णतः त्याग करके साधना के पथ पर गतिशील होना चाहिए। उसे न नीच गोत्र की प्राप्ति पर चिन्ता करनी चाहिए और न उच्च गोत्र की उपलब्धि पर हर्ष ही करना चाहिए।
प्रत्येक प्राणी को अच्छे-बुरे साधन शुभाशुभ कर्म के अनुसार मिलते हैं। अतः साधक को किसी भी प्राणी को दुःख नहीं देना चाहिए और शुभाशुभ कर्मफल का