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________________ 334 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध विचार करके हर्ष एवं शोक का त्याग करके हर परिस्थिति में समभाव की साधना करनी चाहिए। इसी बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-समिए एयाणुपस्सी, तंजहा-अन्धत्तं, बहिरत्तं, मूयत्तं, काणत्तं, कुण्टत्तं, खुज्जत्तं, वडभत्तं, सामत्तं, सबलत्तं, सह पमाएणं अणेगरुवाओ जोणीओ संधायइ विरूवरूवे फासे परिसंवेयइ ॥790 छाया-समितःएतदनुदर्शी तद्यथा-अन्धत्वं, बधिरत्वं, मूकत्वं, काणत्वं, कुण्टत्वं, कुब्जत्वं, वडभत्वं, श्यामत्वं, शवलत्वं सह प्रमादेन अनेक-रूपाः योनिः, संदधाति विरूपरूपान्, स्पर्शान् परिसंवेदयते। ___ पदार्थ-समिए–समिति से युक्त होकर। एयाणुपस्सी-यह देखने वाला हो। तंजहा-जैसे कि। अन्धत्तं-अन्धापन। बहिरत्तं-बहरापन। मयत्तं-गूंगापन। काणत्तं-काणापन। कुण्टतं-हाथों की वक्रता। खुज्जतं-कुब्जत्व-वामनपन। बडभत्तं-कुबड़ापन। सामत्तं-श्यामता-कालापन। सबलत्तं-चितकबरापन। सह पमाएणं-प्रमाद के कारण से होता है, और प्रमादी जीव। अणेगरूवाओ-नाना प्रकार की। जोणीओ-योनियों में। संधायइ-जन्म लेता है, और। विरूबरूवेविभिन्न। फासे-स्पर्शों-दुःखों का। परिसंवेयइ-संवेदन करता है। मूलार्थ-समिति युक्त जीव अर्थात् संयमी पुरुष कर्मविपाक को इस प्रकार देखता है कि संसार में जीवों को अन्धापन, बहरापन, गूंगापन, कानापन, हाथों की वक्रता, वामन रूप, कुबड़ापन, कालापन एवं चितकबरापन आदि की प्राप्ति प्रमाद से होती है। प्रमादी जीव ही विभिन्न योनियों में उत्पन्न होता है और वहां अनेक तरह के स्पर्शजन्य दुःखों का संवेदन करता है। हिन्दी-विवेचन ____ संसार विभिन्न प्रकार के आकार-प्रकार युक्त शरीरधारी जीवों से भरा हुआ है। इस विभिन्नता एवं विचित्रता का कारण कर्म है। अपने कृतकर्म के अनुसार ही प्रत्येक प्राणी अच्छे या बुरे साधनों को प्राप्त करता है। इतना स्पष्ट होते हुए भी इस बात को वही जानता है, जो व्यक्ति समिति-संयम से युक्त है, अन्य व्यक्ति इस बात को सम्यक्तया नहीं जानता है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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