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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 3
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नहीं कर दिया जाता, तब तक संसार का प्रवाह किसी भी अवस्था में नहीं रुक सकता है।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि आठ कर्मों में गोत्र कर्म का भी उल्लेख है। इसी कर्म के फलस्वरूप जीव विभिन्न गतियों उच्च एवं नीच गोत्र को प्राप्त करता है। इससे स्पष्ट होता है कि उच्च और नीच जातिगत या जन्मगत नहीं, अपितु कर्मजन्य है या यों कहिए कि गोत्र कर्म के उदय से ही प्राणी उच्च-नीच गोत्र वाला कहा जाता है और ये गोत्र या श्रेणियां केवल मनुष्यों में हों, ऐसी बात नहीं है। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-चारों गतियों में दोनों गोत्र पाए जाते हैं। संसार की समस्त योनियों में दोनों श्रेणियों के जीवों का अस्तित्व मिलता है। अस्तु, ये उभय श्रेणियां कर्मोदय का फल हैं, ऐसा कहना चाहिए। .
गोत्र कर्म में उच्चता एवं नीचता का बन्ध अभिमान और निरभिमान पर आश्रित है। अभिमान या अहंभाव भी एक प्रकार का मद है। इसमें मनुष्य इतना बेभान हो जाता है कि वह अपने समक्ष संसार को कुछ भी नहीं समझता। एक विचारक ने लिखा है कि “सौ रुपए में एक.बोतल शराब का नशा रहता है।" इसी अपेक्षा से अभिमान को मद भी कहा गया है। आगम में आठ प्रकार के मद बताए गए हैं1. जातिमद 2. कुलमद 3. बलमद 4. रूपमद 5. विद्यामद 6. तपमद 7. लाभमद और 8. ऐश्वर्यमद। आठ प्रकार के इन भेदों में प्रायः सभी तरह के मदों का समावेश हो जाता है। इन पर या इन में से किसी भी वस्तु (जाति आदि) पर अभिमान करना नीच. गोत्र के बन्ध का कारण है और निरभिमान भाव में प्रवृत्त होना निर्जरा या शुभ गोत्र के बन्ध का कारण है। अंतर इतना ही है कि अभिमान करने से ये वस्तुएं अशुभ, हीन एवं विकृत रूप में प्राप्त होती हैं और अन्यथा शुभ रूप में। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यह भेद कर्म जन्य ही है, इसके कारण आत्मा के स्वभाव में कोई अन्तर नहीं आता। न तो केवल उच्च गोत्र की प्राप्ति से आत्मा में महानता आ पाती है और न नीच गोत्र की प्राप्ति से हीनता ही। क्योंकि उभय गोत्र की कर्म प्रकृतियों के समूह समान-तुल्य ही हैं और प्रत्येक आत्मा इन दोनों गोत्रों का अनन्त बार अनुभव कर चुकी है। आज उच्च गोत्र में दिखाई देने वाली आत्मा भी और तो क्या भगवान महावीर जैसे तीर्थंकरों की आत्मा भी अनेक बार नीच गोत्र के कर्दम से संस्पर्शित हो आई है। फिर भी उसकी चेतना में, उसकी अनन्त चतुष्टय की शक्ति