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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
कस्मिन् वा एकः गृध्येत् तस्मात् पण्डितो न हृष्येन् न कुप्येद् भूतेषु जानीहि प्रत्युपेक्ष्य सातम् ।
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पदार्थ-से-वह जीव । असई - अनेक बार । उच्चागोए - उच्च गोत्र में उत्पन्न हुआ और । असई - अनेक बार। नीआगोए - नीच गोत्र में उत्पन्न हुआ, परन्तु । नो हीणे - नीच गोत्र में हीनता नहीं, और । नो अइरित्ते-न उच्च गोत्र में विशेषताश्रेष्ठता है। नोऽपीह - स्पृहा - अभिलाषा न करे । इय - इस प्रकार । संखाय - जानकर । को गोयावाई - कौन गोत्र का वाद करेगा। को माणावाई - कौन गोत्र का मान करेगा । वा - अथवा । कंसि एगे - किसी भी मान के स्थान में । गिज्झे - कौन आसक्त होगा? तम्हा - इसलिए। पंडिय - बुद्धिमान पुरुष । नो हरिसे - उच्च गोत्र. के प्राप्त होने पर न हर्षित होवे और । नो कुप्पे-नीच गोत्र की प्राप्ति से कुपित भी न होवे । भूएहिं - भूतों के विषय । पडिलेह - अनुप्रेक्षा करके । जाण - यह जानो कि । सातं - सब जीवों को सुख प्रिय है ।
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मूलार्थ - यह जीव अनेक बार उच्च गोत्र में जन्म ले चुका है और अनेक बार नीच गोत्र में। इसमें किसी प्रकार की विशेषता या हीनता नहीं है, क्योंकि दोनों अवस्थाओं में भवभ्रमण और कर्मवर्गणा समान हैं। ऐसा जानकर उच्च गोत्र से अस्मिता और नीच गोत्र से दीनता भाव नहीं लाना चाहिए और किसी प्रकार के मद के स्थान की अभिलाषा भी नहीं करनी चाहिए। अनेकों बार उच्च गोत्र में जन्म लिया जा चुका है, ऐसा जानकर अपने गोत्र का कौन मान करेगा? कौन अभिमानी बनेगा? और किस बात में आसक्त होगा ?
पंडित पुरुष उक्त सत्य को समझता है । इसलिए वह उच्च गोत्र की प्राप्ति से हर्षित नहीं होता और नीच गोत्र की प्राप्ति होने पर कुपित नहीं होने पाता, अर्थात् सदा समभावी रहता है। पंडित पुरुष यह भी समझता है कि प्रत्येक प्राणी को सुख प्रिय है।
हिन्दी - विवेचन
संसार एक झूला है। जीव अपने कृतकर्म के अनुसार उस झूले में झूलते रहते हैं। कभी ऊपर और कभी नीचे, इस प्रकार वे विभिन्न योनियों में इधर-उधर घूमते रहते हैं। उनका संसारप्रवाह चलता रहता है। जब तक कर्म के अस्तित्वं को निर्मूल