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द्वितीय अध्ययन : लोकविजय
तृतीय उद्देशक
दूसरे उद्देशक में परिवार एवं धन-वैभव आदि में रही हुई आसक्ति का परित्याग करने एवं संयम में दृढ़ रहने का उपदेश दिया गया है। संयम-साधना में तेजस्विता लाने के लिए कषाय का त्याग करना आवश्यक है। क्रोध, मान, माया और लोभ की
आंधी में भी अपने पैरों को दृढ़ जमाए रखना ही साधना का उद्देश्य है। कई बार साधक क्रोध को पी जाता है। क्रोध का प्रसंग उपस्थित होने पर वह अपने मन में आवेश को नहीं आने देता है और न उसे जीवन-व्यवहार में ही प्रकट होने देता है। परन्तु अनेक बार मानवीय दुर्बलता के कारण साधक भी मान के प्रवाह में बहने लगता है। उसे अपने ज्ञान, तप, साधना या अन्य गुणों पर गर्व होने लगता है और इनके कारण वह अपने आपको अन्य साधकों से श्रेष्ठ या उत्कृष्ट समझने लगता है। यह अभिमान भी पतन का कारण है, क्योंकि इससे आत्मा में ऊंच-नीच की भावना उबुद्ध होती है। वह अपने आपको श्रेष्ठ और अन्य को हीन समझने लगता है। परिणामस्वरूप दूसरे के प्रति उसके मन में घृणा एवं तिरस्कार की भावना उत्पन्न होती है। यह भावना पापबन्ध का कारण है। इसके फलस्वरूप आगामी भव में उसकी शक्ति का सम्यक्तया विकास नहीं हो पाता है। इसलिए साधक को अभिमान का परित्याग करना चाहिए। उसे निरभिमान रहकर साधना में सदा संलग्न रहना चाहिए। यही बात बताते हुए सूत्रकार ने प्रस्तुत उद्देशक में कहा है___ मूलम्-से असई उच्चागोए असई नीआगोए, नो हीणे नो अइरित्ते, नोऽपीहए, इय संखाय को गोयावाई, को माणावाई कंसि वा एगे गिज्झा, तम्हा पंडिए नो हरिसे नो कुप्पे, भूएहि जाण पडिलेह सायं78॥
छाया-सोऽसकृदुच्चैर्गोत्रे, असकृन्नीचैर्गोत्रे नो हीनः नोप्यतिरिक्तः न स्पृहयेत् (नोपीहेत) इति संख्याय को गोत्रवादी (भवेत्)? को मानवादी (भवेत्)