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अध्यात्मसार : 2
मूलम् - अहं आउट्टे से मेहावी, खणंसि मुक्के ॥2/2/73
मूलार्थ - वह साधक बुद्धिमान है, जो अरति - चिन्ता को दूर हटाता है । वह चिन्तामुक्त व्यक्ति स्वल्प समय में कर्मबन्धन से भी मुक्त - उन्मुक्त हो जाता है।
साधना में गतिशीलता लाने के लिए, घर-परिवार का त्याग आवश्यक है । घर-परिवार किस प्रकार बनता है? सांसारिक सम्बन्धों से मुनि को किसी से भी सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए । जहाँ पर भी संबंधों में उलझेंगे तो साधना में डगमगाहट आ जाएगी।
जैसे-जैसे व्यक्ति साधना में आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे आसपास लोग आते चले जाते हैं। अधिकांश लोग आते हैं, अपने स्वार्थ के लिए, और वे ही धीरे-धीरे साधना में बाधक बन जाते हैं। अतः सबसे सुन्दर मार्ग है साधना का एकान्त का, जहाँ पर भी योग्य द्रव्य, क्षेत्र - काल हो साधना करते रहो । किसी भी सम्बन्ध परिस्थिति और व्यक्ति में अधिक उलझना नहीं, सबको आशीर्वाद देना और अपना कार्य करते रहना । जहाँ पर भी इन्द्रिय शक्ति आती है, वहीं पर दुःख और विघ्नों को निमंत्रण मिलता है।
अरइ-अरति-रति-प्रियता, प्रिय संयोग से आसक्ति -अरति अर्थात् अप्रियता, अप्रिय संयोग से द्वेष । जो मेहावी, यह समझता है कि प्रिय अप्रिय मन की कल्पना मात्र है। जो इन दोनों से परे होकर यह देखता है कि दोनों ही वेदना स्वरूप हैं, ऐसा मेधावी तटस्थ व्यक्ति क्षणभर में, स्वल्प काल में मुक्त हो जाता है । यहाँ पर क्षण का अर्थ है स्वल्प समय, इस अनंत काल चक्र के सामने सम्पूर्ण जीवन भी क्षण मात्र है। इस प्रकार की तटस्थता असंगत्व के लिए आवश्यक है, सम्यक् आलम्बन में एकाग्रता, त्रिगुप्ति की साधना से तटस्थता आती है ।
इसके आगे पुण्डरीक-कुंडरीक का उदाहरण इस बात की ओर संकेत करता है कि महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि तुम कितने समय साधना करते हो, अपितु कितनी