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________________ द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 2 317 व्यक्ति के उस कार्य का समर्थन ही करे। यह मार्ग आर्य पुरुषों ने प्ररूपित किया है। अतः कुशल व्यक्ति ऐसे हिंसा एवं पाप जन्य कार्य के द्वारा अपनी आत्मा को कर्मों से लिप्त न करे, अर्थात् पाप कर्म का उपार्जन न करे। ऐसा मैं कहता हूँ। हिन्दी-विवेचन जीवन का मूल लक्ष्य कर्म बन्धन से मुक्त होना है। इसके लिए बताया गया है कि प्रबुद्ध पुरुष को त्रिकरण और त्रियोग के दण्ड-समारम्भ का परित्याग कर देना चाहिए। न स्वयं किसी प्राणी का दण्ड-समारम्भ करे, न दूसरे व्यक्ति से करावे, और न ऐसा कार्य करने वाले का ही समर्थन करे। इस प्रकार हिंसा जन्य प्रवृत्ति से सर्वथा दूर रहने वाला मनुष्य पाप कर्म से लिप्त नहीं होता। ___यह साधना-पथ अर्थात् त्याग मार्ग आर्य पुरुषों द्वारा प्ररूपित है। आर्य की परिभाषा करते हुए कहा है आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याः-संसारार्णवतटवर्तिनः क्षीणघातिकाशाः संसारोदरविवरवर्तिभावविदः तीर्थकृतस्तैः 'प्रकर्षेण' सदेवमनुजायां पर्षदि सर्वस्वभाषानुगामिन्या वाचा योगपद्याशेषसंशीतिच्छेत्र्या प्रकर्षेण वेदित ...कथित...प्रतिपादित इतियावत्। अर्थात्-जो आत्मा पाप कर्म से सर्वथा अलिप्त है, जिसने घातिक कर्म को क्षय कर दिया है, पूर्ण ज्ञान एवं दर्शन से युक्त है, ऐसे तीर्थंकर एवं सर्वज्ञ-सर्वदर्शी पुरुषों को आर्य कहा गया है और उनके द्वारा प्ररूपित पथ को आर्यमार्ग या आर्यधर्म कहते हैं। इसका निष्कर्ष यह निकला कि जो मार्ग प्राणिमात्र के लिए हितकर, हिंसा आदि दोष से दूषित नहीं है, सबके लिए सुख-शान्तिप्रद है, वह आर्य मार्ग है और उस पर गतिशील साधक पूर्ण आत्मज्योति को प्रकट कर लेता है। 'त्ति बेमि' का अर्थ पूर्व के उद्देशकों की तरह समझना चाहिए। ॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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