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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
होना। यह क्रिया आत्मा को कर्म बन्धन में फंसाने वाली है। इसमें आत्मा का संसार बढ़ता है, वह मोक्ष से दूर होती है। अतः साधक को चाहिए कि वह हिंसा-जन्य कार्यों से एवं विषय-भोग से दूर रहे और चित्त में अशांति उत्पन्न करने वाली कषायों का त्याग करके संयम मार्ग में गतिशील बने। यही मोक्ष का प्रशस्त मार्ग है, जिस पर गति करके आत्मा उज्ज्वल-समुज्ज्वल बनकर, एक दिन पूर्ण स्वतंत्र बन जाती है।
प्रस्तुत सूत्र में बताई गई सावंद्य क्रियाए आत्मा के लिए अहितकर होती हैं, उसे दुःखों के अथाह सागर में जा गिराती हैं। इसलिए मुमुक्षु को सावध अनुष्ठानों का परित्याग कर देना चाहिए। इसी बात का निर्देश करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं एएहिं कज्जेहिं दंड समारंभिज्जा, नेव अन्नं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभाविज्जा, एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभंतंपि अन्नं न समणुजाणिज्जा, एस मग्गे आरिएहिं पवेइए, जहेत्थ कुसले नोवलिं पिज्जासि, त्ति बेमि॥770.
छाया-तत् परिज्ञाय मेधावी नैवस्वयं एतैः कार्यैः दण्डं समारभेत, नैवान्यमेतैः कार्यैः दण्डं समारम्भयेत्, एतैः कार्यैः दण्डं समारभमाणमप्यन्यं न समनुज्ञापयेत् एष मार्गः आर्यैः प्रवेदितः, यथा-अत्र कुशलः नोपलिम्पये:-इति ब्रवीमि। __पदार्थ-तं-इस पूर्वोक्त संपूर्ण विषय को। परिण्णाय-जानकर। मेहावीबुद्धिमान पुरुष। नेव सयं-न तो स्वयं । एएहिं-इन। कज्जेहिं-कार्यों के उपस्थित होने पर। दंडं समारंभिज्जा-दंड समारंभ करे और। नेव एएंहिं कज्जेहिं-न इन कार्यों के उपस्थित होने पर। अन्नं-अन्य से। दंडं-हिंसा का। समारंभाविज्जासमारंभ करावे, और। एएहिं कज्जेहिं-इन कार्यों के उपस्थित होने पर। दंडं-दंड का। समारंभंतंपि-समारंभ करने वाले। अन्न-अन्य व्यक्ति को। न समणुजाणिज्जा-अनुमोदन भी न करे। एस मग्गे-यह मार्ग। आरिएहिं-आर्यों द्वारा। पवेइए-प्ररूपित है। कुसले-हे कुशल! जहेत्थ-जैसे-पूर्वोक्त दंड समादान में। नोवलिंपिज्जासि-तेरी आत्मा उपलिप्त न हो ऐसा आचरण कर। त्ति बेमि-ऐसा मैं कहता हूँ।
मूलार्थ-वह परिज्ञावान प्रबुद्ध पुरुष विषय-भोग एवं क्षणिक सुखों के लिए न स्वयं दण्ड का समारंभ करे न अन्य व्यक्ति से करावे और न उस कार्य में प्रवृत्तमान