________________
द्वितीय अध्ययन : लोकविजय
. द्वितीय उद्देशक प्रथम उद्देशक में पारिवारिक एवं भौतिक सुख साधनों तथा धन-ऐश्वर्य आदि के मोह का परित्याग करने की प्रेरणा दी गई है; क्योंकि पारिवारिक एवं संपत्ति का मोह तथा बन्धन साधना के पथ में अवरोधक चट्टान है। पारिवारिक व्यामोह एवं माता-पिता के संबन्धों की आसक्ति से ऊपर उठे बिना साधक साधना-पथ पर गतिशील नहीं हो सकता। स्वतन्त्रता संग्राम के समय हम देख चुके हैं कि देश की स्वतन्त्रता के लिए सत्याग्रहियों को पारिवारिक व्यामोह से ऊपर उठना ही होता था, उन्हें घर एवं संपत्ति की आसक्ति से भी कुछ सीमा तक निश्चिन्त होना पड़ता था। इससे हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि आत्मस्वातंत्र्य के लिए वासना एवं विकारों से अनवरत लड़ने वाले आध्यात्मिक सेनानियों-साधकों के लिए पारिवारिक व्यामोह से ऊपर उठना अनिवार्य है; क्योंकि व्यामोह का त्याग किए बिना संयम में स्थिरता नहीं आ सकती।
चिन्तन-मनन से प्राप्त सम्यग ज्ञान पूर्वक आचार में प्रवृत्त होने का नाम संयम है। इसके लिए सबसे पहले चिन्तन में सात्त्विकता का आना जरूरी है और वह योगों की एकाग्रता पर आधारित है और जब तक साधक पारिवारिक व्यामोह से आबद्ध है, तब तक उसके योगों में एकाग्रता आ नहीं पाती। क्योंकि उसके सामने अनेक समस्यायें मुंह फाड़े खड़ी रहती हैं, कभी मन किसी समस्या से उलझा हुआ है तो वचन का प्रयोग किसी और ही पहलू को हल करने में लग रहा है और शरीर किसी तीसरे कार्य में ही व्यस्त है। इस प्रकार तीनों योगों की विभिन्न दिशाओं में दौड़-धूप होती रहने से, उनमें एकाग्रता नहीं आ पाती। अतः योगों की एकाग्रता के अभाव में चिन्तन में सात्त्विकता एवं ज्ञान तथा आचार में तेजस्विता नहीं आ पाती है। अस्तु संयम की साधना के लिए, साधना के मूल चिन्तन में सात्त्विकता एवं ज्ञान में निधूमता लाने के लिए पारिवारिक व्यामोह का त्याग करना अनिवार्य है। इसी.कारण प्रथम