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अध्यात्मसार : 1
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अपरिहीणेहिं आयळं सम्मं समणुवासिज्जासि त्तिबेमि॥2/1/72
मूलार्थ-जब एक श्रोत्र विज्ञान हीन नहीं हुआ, चक्षु विज्ञान हीन नहीं हुआ, घ्राण विज्ञान हीन नहीं हुआ, जिह्वा विज्ञान हीन नहीं हुआ, स्पशेन्द्रिय विज्ञान हीन नहीं हुआ, इस प्रकार ये सब विविध रूप वाले विशिष्ट विज्ञानों का जब तक ह्रास नहीं हुआ है, तब तक साधक को सम्यक्तया आत्मा के हित में निवास करना चाहिए, अर्थात् आत्मा के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा मैं कहता हूँ।
यहाँ बताया गया है कि जब तक सारी इन्द्रियाँ ठीक हैं, जब तक इन्द्रिय विज्ञान का ह्रास नहीं हुआ है; जब तक आभ्यन्तर प्रज्ञा, सुदेव, सद्गुरु और सद्धर्म रूप विविध रूप से, प्रज्ञावान का संयोग मिला है, तब तक इन सभी सुयोग्य निमित्तों को लेकर व्यक्ति को आत्मार्थ को साध लेना चाहिए, क्योंकि इन सबका एक साथ मिलना कठिन है। कभी स्वस्थ शरीर मिलता है तो धर्म नहीं मिलता और धर्म मिलता है तो स्वस्थ शरीर नहीं मिलता।