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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 2
उद्देशक में मोह एवं आसक्ति के परित्याग की बात कही गई है। इससे साधक के मन में स्नाहस एवं उत्साह का संचार होता है । परन्तु कभी - कभी कुछ ऐसी परिस्थितियां सामने आती हैं कि साधक का मन लड़खड़ाने लगता है । उसकी अस्थिरता को दूर करके साधना में दृढ़ता लाने के लिए प्रस्तुत उद्देशक में सूत्रकार संयम - मार्ग में आने वाली अरुचियों का वर्णन करके यह स्पष्ट कर रहे हैं कि साधक को उन पर कैसे विजय पानी चाहिए। प्रस्तुत उद्देशक का प्रारंभ करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - अरई आउट्टे से मेहावी, खणंसि मुक्के ॥ 73॥ छाया - अरतिं आवर्त्तेत (अपवर्त्तेत ) स मेधावी क्षणे मुक्तः ।
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पदार्थ-से-वंह। मेहावी - बुद्धिमान है, जो । अरइं- अरति-चिन्ता को। आउट्टे-दूर करता है, वह फिर । खणंसि-क्षण मात्र - स्वल्प काल में । मुक्के -अष्ट कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है ।
मूलार्थ - वहं साधक बुद्धिमान है, जो अरति - चिन्ता को दूर हटाता है । वह चिन्तामुक्त व्यक्ति स्वल्प समय में कर्मबन्धन से भी मुक्त - उन्मुक्त हो जाता है । हिन्दी - विवेचन
एक विचारक ने सत्य ही कहा है कि “साधना का मार्ग फूलों का मार्ग नहीं, कंटीली पगडंडी है।” अतः उस पर गतिशील साधक को पूरी सावधानी रखने का आदेश दिया गया है, प्रतिक्षण विवेकपूर्वक गति करने को कहा गया है । इतने पर भी परीषों का कोई-न-कोई कांटा चुभ ही जाता है । उस समय निर्बल साधक के मन में वेदना की अनुभूति का होना भी स्वभाविक है । इसलिए सूत्रकार ने साधक को सावधान करते हुए प्रस्तुत सूत्र में यह बताया है कि ऐसे विकट समय में भी अपने मार्ग पर गतिशील रहने वाला व्यक्ति ही बुद्धिमान है और वही कर्मबन्धन की शृंखला को तोड़कर मुक्त हो सकता है । अतः साधक को थोड़े से परीषह से घबराकर अपने प्रशस्त मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिए और अपनी श्रद्धा एवं ज्ञान की ज्योति को धूमिल नहीं पड़ने देना चाहिए ।
साधना के पथ से विचलित होने का अर्थ है - पतन के गर्त में गिरना । अतः ज़रा-से परीषह से परास्त होने वाला व्यक्ति कुंडरीक की तरह अपने जीवन को बर्बाद