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अध्यात्मसार: 1
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को बढ़ाने वाला भी हो सकता है और धर्म की वृद्धि करने वाला भी हो सकता है। जैसे श्रावक का, गृहस्थ का परिवार होता है, वैसे ही साधु का गण होता है। गृहस्थ धन-सम्पत्ति एवं सुख की वृद्धि में एक दूसरे का सहयोग करता है, भोग-विलास में एक दूसरे का सहयोग करता है। साधुजन अन्योन्य-परस्पर संयम-साधना एवं धर्म की वृद्धि तथा संयम-निर्वाह में सहयोग देते हैं।
यह सूत्र एक प्रकार से प्रेम एवं मैत्री का भी सूचक है। सामान्य अर्थों में यह निर्देश करता है कि सभी जीव एक-दूसरे से कहीं-न-कहीं जुड़े हुए हैं। एक दूसरे का उन पर उपग्रह हैं। इस प्रकार यह एक सामाजिक सूत्र है। यह सूत्र आध्यात्मिक रूप से तभी महत्त्वपूर्ण बनता है, जब वह धर्म एवं साधना के क्षेत्र में प्रवृत्त होता है। जिस क्षेत्र की अपेक्षा से इसका अर्थ करेंगे, वैसा ही इसका अर्थ निकलेगा। ____ भगवान का तीर्थ भी परस्पर सहयोग पर टिका हुआ है। ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्' यह तीर्थ का संयोजन करने वाला है। श्रमण वर्ग का श्रावक वर्ग को सहयोग है और श्रावक का श्रमणवर्ग को; फिर भी वे एक दूसरे पर आश्रित नहीं हैं। वे एक दूसरे का सहयोग तो लेते हैं, परन्तु आश्रित नहीं हैं।
व्यक्ति : आश्रय के कारण
जब मन में किसी के प्रति आशा और अपेक्षा होती है। यह आशा कि वह मुझे सहयोग देगा ही। यह अपेक्षा कि उससे तो मुझे सहयोग मिलेगा ही। लेकिन साधक का भाव यह होना चाहिए कि सहयोग मिले तो भी ठीक है और न मिले तो भी ठीक. है। साधक का अन्तःकरण निरपेक्ष होता है, क्योंकि यदि आशा होगी तो निराशा भी आएगी। फिर राग-द्वेष और सुख-दुःख का जन्म होगा। अतः साधु को किसी से आशा नहीं रखनी चाहिए। आशा दुःख की जननी है और संसार का विस्तार है।
व्यक्ति आशा क्यों रखता है क्योंकि उसके मन में भ्रम है कि किसी से मझे कुछ मिल सकता है, कोई मुझे सुख दे सकता है। वह अभी तक यह समझ नहीं पाया कि मैं स्वयं आनंद स्वरूप चिन्मय ज्योति हूँ। कोई मुझे न सुख दे सकता है और न दुःख। जब तक हमें अपने आनंद का पता नहीं है, तभी तक बाहर से सुख की चाह रहती है। निष्कर्ष यह है कि किसी से आशा आत्मअज्ञान के कारण होती है।